बांग्लादेश में आरक्षण विरोधी आंदोलन के हिंसक रुख अख्तियार कर लेने से वहां की सरकार के सामने एक बड़ी चुनौती खड़ी हो गई है। वहां के युवा न तो पुलिस-प्रशासन की बात सुनने को तैयार हैं और न प्रधानमंत्री शेख हसीना के अनुरोध और दलील का उन पर कोई असर हो रहा है। प्रदर्शन के दौरान हिंसा से अब तक सौ से ज्यादा लोगों की जान जा चुकी है और सैकड़ों घायल हुए हैं। हालात इस कदर बिगड़ गए हैं कि पूरे देश में कर्फ्यू लगाना पड़ा और उग्र प्रदर्शनकारियों को ‘देखते ही गोली मारने’ के आदेश दे दिए गए हैं।
अब तक एक हजार से अधिक भारतीय विद्यार्थी स्वदेश लौटे
ऐसे में वहां रह रहे भारत, नेपाल और भूटान समेत अन्य देशों के लोगों को अपनी सुरक्षा की चिंता सताने लगी है। भारतीय विदेश मंत्रालय के मुतबिक, बांग्लादेश में करीब पंद्रह हजार भारतीयों के होने का अनुमान है। इनमें लगभग साढ़े आठ हजार विद्यार्थी हैं। अब तक एक हजार से अधिक भारतीय विद्यार्थी स्वदेश लौट आए हैं। केंद्र सरकार की ओर से बाकी भारतीय नागरिकों को सुरक्षित वापस लाने के प्रयास जारी हैं। इस बीच, बांग्लादेश-भारत सीमा पर सतर्कता बढ़ाने की मांग भी उठने लगी है।
दरअसल, बांग्लादेश में हिंसक आंदोलन पर उतरे युवा उस व्यवस्था को समाप्त करने की मांग कर रहे हैं, जिसके तहत वर्ष 1971 में पाकिस्तान के खिलाफ बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम में लड़ने वाले पूर्व सैनिकों के आश्रितों को सरकारी नौकरियों में तीस फीसद तक आरक्षण का प्रावधान है। प्रदर्शनकारियों का तर्क है कि आरक्षण की इस व्यवस्था के जरिए प्रधानमंत्री शेख हसीना के समर्थकों को लाभ पहुंचाया जा रहा है।
गौरतलब है कि शेख हसीना की अवामी लीग पार्टी ने मुक्ति संग्राम आंदोलन का नेतृत्व किया था। प्रधानमंत्री शेख हसीना का कहना है कि युद्ध में भाग लेने वालों को सम्मान मिलना चाहिए, भले वे किसी भी राजनीतिक संगठन से जुड़े हों। बांग्लादेश सरकार और प्रदर्शनकारियों की दलीलें अपनी जगह हैं, लेकिन क्या अपनी मांगों को मनवाने की हिंसा ही एकमात्र उपाय है? जहां प्रदर्शनकारियों को शांतिपूर्वक अपनी बात सरकार के समक्ष रखनी चाहिए, वहीं सरकार को चाहिए कि सड़कों पर उतरे युवाओं को किसी तरह भरोसे में ले, ताकि पहले हिंसा थमे।