बिहार में जाति जनगणना के आंकड़े आने के बाद अब यह एक तरह से राष्ट्रीय चुनावी राजनीति का एक अहम औजार मान लिया गया है और खासतौर पर विपक्षी गठबंधन इसे अपने हक में कारगर मुद्दे के तौर पर देख रहा है। इसी को देखते हुए कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने इस पर अपने रुख से यह लगभग साफ कर दिया है कि 2024 के आम चुनाव में जाति का सवाल उनकी पार्टी और गठबंधन के लिए सबसे प्रमुख मुद्दा होने जा रहा है।
मंगलवार को उन्होंने जाति जनगणना को देश का ‘एक्स-रे’ करार दिया और कहा कि यह अन्य पिछड़ा वर्ग यानी ओबीसी, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की दशा को उजागर करेगा, जो ‘घायल’ है। उन्होंने यह भी कहा कि उनकी पार्टी केंद्र सरकार को यह कवायद कराने के लिए मजबूर करेगी।
अपनी नई राजनीति में राहुल गांधी ने जाति जनगणना को प्रमुख मुद्दा बनाते हुए यह साफ कर दिया है कि वे वंचित सामाजिक तबकों को उनका अधिकार दिलाने पर जोर देंगे। लेकिन सवाल है कि इस मसले को राजनीति का मुख्य केंद्र बनाने के नतीजे में देश और समाज में कौन-सी नई परिस्थितियां पैदा होंगी और उसमें वास्तविक न्याय कितना सुनिश्चित हो सकेगा!
सही है कि जाति भारतीय समाज की एक हकीकत रही है और समूचे सत्ता संरचना और तंत्र के स्तर पर एक बड़े सामाजिक समूहों की पर्याप्त भागीदारी सुनिश्चित नहीं हो सकी। इसके लिए स्वतंत्रता के बाद से सत्ता संभालने वाली अमूमन सभी सरकारों की अपनाई गई वे नीतियां जिम्मेदार रही हैं, जिनमें घोषणाएं तो समूची जनता का हित तय करने के लिए की गईं, लेकिन व्यवहार में समाज का ज्यादातर हिस्सा जनकल्याण की योजनाओं के वास्तविक लाभों के दायरे से बाहर ही रहा।
तो अब अगर राहुल गांधी और उनकी पार्टी जाति को केंद्र में रख कर राजनीति की दिशा तय करने का संकेत दे रहे हैं तो क्या यह अतीत में उनकी पार्टी की ओर से हुई ‘चूक’ की स्वीकारोक्ति भी है? जाति आधारित जनगणना का मकसद अगर हर स्तर पर वंचित रह गए सामाजिक समूहों की पहचान और इसके कारणों की पड़ताल कर एक समावेशी व्यवस्था तैयार करने के रूप में अमल में आता है, तो इससे किसी को असहमति नहीं होगी। कोई भी इंसाफ-पसंद व्यक्ति और समूह यही चाहेगा। लेकिन अगर इसे राजनीति का औजार बनाया जाता है तो इसका हासिल शायद सामाजिक विभाजनों के और तीखा होने के रूप में सामने आए।
इक्कीसवीं सदी का सफर तय करते देश में यह सब ऐसे समय में हो रहा है जब शायद सभी जाति-वर्गों के तमाम संवेदनशील लोगों की यह सदिच्छा होगी कि जाति की दीवारें टूटें और यह व्यवस्था खत्म हो। शहरों-महानगरों में एक ऐसी पीढ़ी तैयार हो रही है, जो निजी जीवन और भविष्य के मामले में खुद से संबंधित किसी फैसले के संदर्भ में जाति-व्यवस्था के पारंपरिक पैमाने को मानने के लिए तैयार नहीं है और न ही उस पर ध्यान देती है।
जरूरत इस नई हवा को और साफ करने की है, जिसमें जाति की जड़ता से जुड़े पूर्वाग्रहों-दुराग्रहों की कोई जगह न हो और सभी न्याय आधारित भागीदारी का स्वागत करें। इसमें देश के सभी राजनीतिक दलों की मुख्य जिम्मेदारी बनती है। लेकिन अफसोस की बात यह है कि सभी पार्टियां किसी न किसी बहाने जाति को आधार बना कर अपनी राजनीतिक जमीन पुख्ता करना चाहती हैं।
वंचित सामाजिक तबकों के लिए न्याय और भागीदारी सुनिश्चित करने के प्रयासों से कोई इनकार नहीं कर सकता। लेकिन इसके लिए जाति जनगणना या इसके आंकड़े को अगर जातिगत विभाजन को और मजबूत करने का हथियार बनाया जाता है तो आने वाले वक्त में कैसी तस्वीर तैयार होगी, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है।