पिछले कुछ वर्षों से धनशोधन के आरोपों के तहत प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी और सीबीआइ की ओर से छापे या गिरफ्तारियों के मामले सुर्खियों में रहे हैं। इसके अलावा, ऐसे कई मामलों में होने वाली कार्रवाइयों की जैसी प्रकृति देखी गई, उसमें अब ईडी को विपक्ष की आवाज को दबाने का औजार बनाए जाने के आरोप भी लगने लगे हैं। इस मसले पर खुद सुप्रीम कोर्ट की ओर से भी प्रवर्तन निदेशालय को एहतियात बरतने या हिदायत देने की कोशिश हो चुकी है। मगर आज भी ऐसे आरोपों में साक्ष्यों को लेकर शायद गंभीरता नहीं आ पाई है या फिर इसमें एक परिपक्व दृष्टि का अभाव दिखता है।

ईडी को दोषसिद्धि की दर बढ़ाने के लिए वैज्ञानिक जांच की सलाह

शायद यही वजह है कि बुधवार को एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट ने धनशोधन के मामलों में दोषसिद्धि की बहुत कम दर का हवाला देते हुए ईडी से अभियोजन और साक्ष्य की गुणवत्ता पर ध्यान देने को कहा। यह छिपा नहीं है कि बीते कुछ समय से धनशोधन के आरोपों में छापा या फिर गिरफ्तारी के लगातार मामले सामने आ रहे हैं, मगर उनमें से बहुत कम मामलों में आरोप साबित हो रहे हैं। इसी के मद्देनजर सुप्रीम कोर्ट ने ईडी को दोषसिद्धि की दर को बढ़ाने के लिए वैज्ञानिक जांच करने की सलाह दी।

दरअसल, पहले भी धनशोधन के आरोप पर होने वाली कार्रवाइयों को लेकर कई तरह के सवाल उठते रहे हैं और बिना मजबूत साक्ष्य के आधार पर गिरफ्तारी के मामलों की विश्वसनीयता कसौटी पर रही है। इसके बावजूद लगातार इस तरह के आरोप में छापे या गिरफ्तारी के मामले सामने आए। हकीकत यह है कि धनशोधन के मामले में गैरकानूनी गतिविधियों के आरोप के साथ ईडी ने कार्रवाई करने में जितनी हड़बड़ी दिखाई, उतनी ही शिद्दत से आरोपों को साबित करने के लिए साक्ष्य पेश नहीं किए। नतीजतन, ऐसे मामलों में दोषसिद्धि की दर काफी कम रही।

गौरतलब है कि केंद्रीय गृह मंत्रालय ने मंगलवार को लोकसभा में यह जानकारी दी कि ईडी ने सन 2014 से लेकर 2024 के बीच धनशोधन निवारण अधिनियम यानी पीएमएलए के तहत कुल पांच हजार दो सौ सत्तानबे मामले दर्ज किए, लेकिन इनमें से सिर्फ चालीस आरोपों में ही दोष सिद्ध हो सका। सवाल है कि इतनी बड़ी तादाद में दर्ज होने वाले मामलों की बुनियाद में सबूतों का आधार कितना ठोस था और किन वजहों से प्रवर्तन निदेशालय पर पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होकर कार्रवाई करने के आरोप लगते हैं!

अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि शीर्ष अदालत को यह कहने की जरूरत पड़ी कि जिन मामलों में प्रथम दृष्टया मामला बनता है, प्रवर्तन निदेशालय को उन्हें अदालत में साबित करने की जरूरत है। अदालत की यह टिप्पणी यही दर्शाती है कि जिस तेजी से धनशोधन के मामलों में ईडी ने कार्रवाई किए, उसे साबित करने को लेकर उसके भीतर कोई गंभीरता नहीं दिखी। इसकी क्या वजहें हो सकती हैं?

आखिर क्या कारण है कि विपक्षी दलों को प्रवर्तन निदेशालय की मंशा पर और उसके सरकार के इशारे पर काम करने की प्रवृत्ति पर सवाल उठाने का मौका मिलता है? गैरकानूनी धनशोधन के मामलों की जांच और कार्रवाई की जिम्मेदारी का निर्वहन करते हुए अगर दर्ज मामलों में दोषसिद्धि की दर बेहद कम है तो क्या यह प्रवर्तन निदेशालय की साक्ष्यों को लेकर गंभीरता में कमी का सूचक नहीं है? यह ध्यान रखने की जरूरत है कि ईडी जैसी सरकारी एजंसी की विश्वसनीयता या साख उसकी कार्रवाइयों की बुनियाद और उसमें दोषसिद्धि की दर के आधार पर बनती या बिगड़ती है।