चुनावी चंदे के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने सुनवाई पूरी कर फैसला सुरक्षित रख लिया है। अदालत ने निर्वाचन आयोग को निर्देश दिया कि वह बीते सितंबर महीने तक राजनीतिक दलों को मिले कुल चंदे का ब्योरा पेश करे। हालांकि इस पर निर्वाचन आयोग का रुख कुछ टालमटोल का रहा, मगर अदालत ने इसे लेकर सख्ती दिखाई। फैसला यह ब्योरा उपलब्ध होने के बाद ही आएगा।

हालांकि पूरी सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय की पांच जजों की पीठ ने सरकार से जिस तरह के सवाल किए और सरकार की तरफ से उनके जो जवाब आए, उससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि चुनावी चंदे के मामले में जानबूझ कर पारदर्शिता बाधित की गई। सर्वोच्च न्यायालय ने समानता का अधिकार कानून की नजर से इस मामले पर सुनवाई की।

शुरू में सरकार ने तर्क दिया कि चुनावी चंदे के बारे में मतदाता को जानने का कोई अधिकार नहीं है। मगर इस सवाल के आगे यह तर्क देर तक ठहर नहीं पाया कि मतदाता कंपनियों का शेयरधारक भी हो सकता है और उसे यह जानने का पूरा अधिकार है कि उसके निवेश का लाभांश कंपनी किस राजनीतिक दल को दे रही है। ऐसे ही अदालत के लगभग सभी सवाल सरकार को असहज करने वाले थे।

दरअसल, चुनावी चंदे से संबंधित कानून को बदल कर बांड का प्रावधान किया गया, तभी आशंका जाहिर की गई थी कि इससे राजनीतिक चंदे में अपारदर्शिता आएगी और कारपोरेट घराने इसके जरिए अपने हित साधने का प्रयास करेंगे। वह बात जल्दी ही साबित भी हो गई। दरअसल, नए कानून के बाद राजनीतिक चंदे की करीब नब्बे फीसद राशि सत्ताधारी दल को मिलती रही है।

इस तरह चंदे के मामले में राजनीतिक दलों के बीच असमानता देखी गई। चुनावी शुचिता के पक्षधर सदा से कहते रहे हैं कि राजनीतिक दलों पर कारपोरेट घरानों या कंपनियों से चुनावी चंदा लेने की रोक होनी चाहिए, क्योंकि इस तरह चंदा देकर कारोबारी सत्तापक्ष पर अपने लाभ के लिए फैसले कराने का दबाव बना सकते हैं। काफी समय तक ऐसे चंदे पर रोक रही।

फिर नियम बना कि कंपनियां अपने सकल लाभ का पांच फीसद चुनावी चंदे के रूप में दान दे सकती हैं। इस सीमा को बाद में बढ़ा कर साढ़े सात फीसद कर दिया गया था। मगर जब बांड के रूप में चंदा लेने का कानून बना तो यह सीमा हटा दी गई और नियम बन गया कि कोई भी जितना चाहे, चंदा दे सकता है। जरूरी नहीं कि कंपनी फायदे में ही चल रही हो। यहां तक कि अगर किसी विदेशी कंपनी की शाखा भारत में है, तो वह भी चंदा दे सकती है। चंदा देने वाले की पहचान उजागर नहीं की जा सकती।

इस कानून के पीछे सरकार का तर्क था कि इससे काले धन को सफेद करने का चलन बंद होगा। मगर जिस तरह कुल चंदे का बड़ा हिस्सा केवल सत्ताधारी दलों को मिलता देखा गया है, उससे यह अंदेशा गहरा हुआ है कि कंपनियों ने सरकारों से किसी न किसी लाभ की इच्छा से ऐसा किया होगा। बहरहाल, सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया है कि चुनावी चंदे में पारदर्शिता जरूरी है और मतदाता को यह जानने का पूरा हक होना चाहिए कि किसी पार्टी को चंदा कहां से मिल रहा है और वह उसका उपयोग किस रूप में कर रही है। लोकतंत्र का तकाजा भी यही है कि राजनीतिक दल अपारदर्शी तरीके से धन जुटाने का प्रयास न करें।