महाराष्ट्र में स्थानीय निकाय चुनाव के नतीजों ने एक बार फिर भाजपा के माथे पर चिंता की लकीरें पैदा कर दी हैं। नगर परिषद और नगर पंचायत चुनावों में अगर भाजपा को सबसे आखिरी पायदान से संतोष करना पड़ा, तो इसे राज्य में उसके आधार-समर्थन में तेजी से गिरावट के संकेत के तौर पर देखा जा सकता है। जाहिर है, इससे राज्य में कांग्रेस को भाजपा नेतृत्व वाली सरकार के कामकाज और उसकी नाकामी पर जनता की राय के तौर पर पेश करने का मौका मिला है। गौरतलब है कि महाराष्ट्र में तीन सौ पैंतालीस वार्डों के लिए हुए नगर परिषद और नगर पंचायत चुनावों में एक सौ पांच वार्ड में जीत दर्ज कर कांग्रेस अव्वल रही, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को अस्सी और शिवसेना को उनसठ सीटें मिलीं। जबकि महज उनतालीस सीटें हासिल कर भाजपा सबसे पीछे रही। हैरानी की बात है कि भाजपा को सबसे निराशा अहमदनगर जिले के जामखेड़ और चंद्रपुर में मिली। जामखेड़ गृह राज्यमंत्री राम शिंदे का गृहनगर है और चंद्रपुर का प्रतिनिधित्व वहां के वित्तमंत्री सुधीर मुनगंटीवार करते हैं। हालांकि इससे पहले उनसठ नगर पंचायत और नगर परिषदों में पिछले साल नवंबर में हुए चुनाव के नतीजों में भी भाजपा और कांग्रेस के बीच कांटे की टक्कर थी, राकांपा ने भी अच्छा प्रदर्शन किया था। लेकिन सिर्फ तीन महीनों के दौरान सरकार में होने के बावजूद ताजा चुनावों में भाजपा को ऐसे परिणाम का सामना क्यों करना पड़ा! यह संभव है कि इस जीत से उत्साहित कांग्रेस के नेताओं का कांग्रेस के प्रति लोगों के विश्वास लौटने के तौर पर देखना थोड़ी जल्दबाजी हो, लेकिन सवाल है कि आखिर किन वजहों से भाजपा से लोग इस कदर विमुख हुए कि उसे बाकी सभी दलों के मुकाबले सबसे कम सीटें मिलीं!

सच यह है कि पिछले दो महीनों में यह दूसरा मौका है जब भाजपा के नेतृत्व वाली राज्य सरकार को अपना आधार-समर्थन कम होने के स्पष्ट संकेत मिले हैं। इससे पहले बीते साल नवंबर में भाजपा के लिए पिछले लंबे समय से अभेद्य किले के तौर पर देखे जाने वाले गुजरात के स्थानीय निकायों के चुनावों में भी भाजपा को शहरी इलाकों में तो समर्थन मिला था, लेकिन जिला पंचायतों, कस्बों और ग्रामीण इलाकों में लंबे समय के बाद कांग्रेस ने जोरदार वापसी की थी। यह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि भाजपा के लिए हालात अब अनुकूल नहीं रहे हैं। गुजरात नतीजों के बाद यह कहा गया था कि वहां हार्दिक पटेल के उभार और पाटीदार आरक्षण आंदोलन का असर पड़ा। लेकिन जाहिर है, यह चुनावी नतीजों को प्रभावित करने वाला कोई अकेला मुद्दा नहीं होगा। जब तक लोगों के बीच स्थानीय प्रशासन और सरकार के कामकाज के प्रति कोई बड़ा असंतोष मुखर नहीं होगा, तब तक किसी सत्ताधारी पार्टी के प्रति समर्थन का आधार इस कदर घटने की नौबत नहीं आएगी। दरअसल, 2014 में लोकसभा चुनावों में शानदार कामयाबी के बाद पहले दिल्ली और फिर बिहार विधानसभा चुनावों में जिस कदर भाजपा को बुरी हार का सामना करना पड़ा, उससे बहुत कम समय में ही जनता का राजनीतिक मानस बदलने का संकेत मिला। पिछले कुछ महीनों के दौरान वही रुझान अब भाजपा शासित राज्यों में स्थानीय निकायों के चुनावी नतीजों में देखने को मिल रहे हैं। इसलिए स्वाभाविक ही यह भाजपा के लिए अपने नेतृत्व वाली सरकारों के कामकाज और राजनीतिक शैली पर विचार करने का समय है।