कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन टूडो की विडंबना है कि जिस मुद्दे पर वे गंभीरता दर्शाना चाहते हैं, उसी में घिर जाते हैं। कनाडा के अल्पसंख्यकों के अधिकारों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता अच्छी बात है, लेकिन अगर इस बहाने वे एक आतंकवादी की हत्या के लिए भारत को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश करते हैं, तो यह उनकी नाहक जिद ही कही जाएगी।

गौरतलब है कि बुधवार को एक समिति के सामने गवाही में उन्होंने एक बार फिर खालिस्तानी अलगाववादी हरदीप सिंह निज्जर की हत्या का मुद्दा उठाया और परोक्ष रूप से भारत की ओर अंगुली उठाई। ट्रूडो ने इस मसले को हवा देते हुए कहा कि उनकी सरकार कनाडा के सभी लोगों के अधिकारों और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए खड़ी है। अपने नागरिकों के हित और हक की रक्षा करना किसी भी देश की सरकार का दायित्व है। मगर क्या इस बहाने उसे किसी अन्य देश के खिलाफ काम करने वाले तत्त्वों का समर्थन करने का अधिकार भी मिल जाता है?

कनाडा के प्रधानमंत्री अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक तकाजों को ताक पर रख कर ऐसा करना चाहते हैं, तो यह उनका चुनाव हो सकता है। लेकिन उनके इस रुख का औचित्य इससे भी तय होगा कि क्या उनके बयानों से किसी अन्य देश की संप्रभुता पर आंच आती है! निज्जर की हत्या को अब दस महीने हो गए हैं।

ट्रूडो ने इस घटना के लिए भारत पर अंगुली उठाई थी, जबकि भारत ने इससे साफ इनकार किया। विडंबना है कि अपने आरोप दोहराते हुए ट्रूडो अब तक मांगे जाने के बावजूद निज्जर की हत्या से संबंधित कोई भी ठोस सबूत देने में नाकाम रहे हैं। उन्हें यह समझने की जरूरत है कि कनाडा के प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए अगर वे निज्जर हत्या में भारत का हाथ होने की बात कहते हैं तो इसका असर अंतरराष्ट्रीय पटल पर क्या पड़ता है! आखिर निराधार आरोप की बुनियाद पर भारत को कठघरे में खड़ा करके उन्हें अपने देश में क्या हासिल हो जाएगा? उनकी इस नाहक जिद की वजह से भारत की छवि पर जो असर पड़ता है, उसकी भरपाई क्या वे कर पाएंगे?