हमारी राज्य-व्यवस्था का कोई भी अंग भ्रष्टाचार से बच नहीं सका है। पिछले कुछ बरसों में उच्च न्यायपालिका के कई सदस्यों पर भी भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं। विडंबना यह है कि जहां अन्य क्षेत्रों के भ्रष्टाचार से निपटने के लिए जांच और कार्रवाई के तंत्र बने हुए हैं, वहीं उच्च न्यायपालिका के संदर्भ में इसका अभाव रहा है। दरअसल, हमारे संविधान निर्माताओं ने यह सोचा होगा कि सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के स्तर पर किसी न्यायाधीश पर अंगुली उठने की नौबत नहीं आएगी या कभी-कभार ही आएगी। इसलिए वैसी स्थिति में कार्रवाई के लिए आरोपी जज को महाभियोग से ही हटाए जाने की व्यवस्था की गई। पर महाभियोग का प्रावधान बहुत अव्यावहारिक साबित हुआ है। इसका प्रस्ताव लाने के लिए लोकसभा के कम से कम एक सौ या राज्यसभा के कम से कम पचास सदस्यों के समर्थन की जरूरत होती है। फिर यह हटाने की ही व्यवस्था हो सकती है, आरोप की जांच और तथ्यों के आधार पर निष्कर्ष निकालने की नहीं। इसके साथ ही एक मुद््दा यह भी है कि आरोपी को हटाना ही कार्रवाई का एकमात्र तरीका नहीं हो सकता।
कई बार भर्त्सना, चेतावनी या कुछ समय तक कार्य-मुक्त रखने जैसे हल्के दंड उचित होते हैं। उच्च न्यायपालिका के सदस्यों के खिलाफ आने वाली शिकायतों की मौजूदा व्यवस्था यह है कि सुप्रीम कोर्ट के मु्रख्य न्यायाधीश के पास संबंधित शिकायत भेज दी जाती है। मुख्य न्यायाधीश समेत सुप्रीम कोर्ट के कुछ वरिष्ठ जजों की एक समिति उस पर विचार करती है। लेकिन इस व्यवस्था को लेकर भी वही दिक्कत है जो नियुक्ति के मामले में कोलेजियम प्रणाली के साथ रही है। कोलेजियम प्रणाली में जज ही जजों की नियुक्ति करते हैं। इसी तरह, अनियमितता और अनौचित्य के आरोपों पर सुनवाई के मामले में भी पूरी तरह आंतरिक व्यवस्था है।
कोलेजियम की जगह राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग बनाने के मकसद से हुए संविधान संशोधन को सर्वोच्च न्यायालय के पांच जजों के संविधान पीठ ने पिछले साल अक्तूबर में खारिज कर दिया था। पर इससे विचलित हुए बगैर, सरकार तीन सदस्यीय राष्ट्रीय न्यायिक निगरानी समिति बनाना चाहती है, जो उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के जजों के खिलाफ कदाचार और अक्षमता संबंधी शिकायतों को जांच और कार्रवाई के लिहाज से परखेगी। प्रस्तावित समिति में प्रधान न्यायाधीश के अलावा एक प्रतिष्ठित व्यक्ति और कानूनमंत्री भी सदस्य होंगे। इस तरह न्यायपालिका के साथ ही कार्यपालिका और सिविल सोसायटी को भी इसमें समान प्रतिनिधित्व देने की बात सोची गई है। फिर, इसी तर्ज पर राज्यों के स्तर पर भी निगरानी समिति गठित की जाएगी।
राष्ट्र्ीय न्यायिक नियुक्ति आयोग में कानूनमंत्री को शामिल किया जाना ही सबसे ज्यादा विवाद का विषय बना था। इसलिए हो सकता है राष्ट्रीय न्यायिक निगरानी समिति को लेकर भी कुछ वैसा ही हो। पर कई देशों में न्यायिक नियुक्ति के अलावा जजों के खिलाफ आने वाली शिकायतों की सुनवाई की व्यवस्था में भी कार्यपालिका को प्रतिनिधित्व हासिल है। न्यायिक नियुक्ति आयोग से संबंधित अधिनियम को असंवैधानिक ठहराते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि न्यायपलिका की स्वतंत्रता संविधान का बुनियादी ढांचा है और इसे बदलने की इजाजत किसी को नहीं है, संसद को भी नहीं। पर कोलेजियम न्यायपालिका की स्वतंत्रता की शर्त है तो मूल संविधान में इसका प्रावधान क्यों नहीं था? इसकी तजवीज तो दो दशक पहले सर्वोच्च न्यायालय ने अपने दो फैसलों के जरिए की थी। राष्ट्रीय निगरानी समिति की पहल स्वागत-योग्य है। अच्छा होगा कि कोलेजियम को भी अधिक मान्य बनाने के बारे में सोचा जाए।