पारदर्शिता के लिए काम करने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्था ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की वैश्विक रिपोर्ट हर साल आती है, जो बताती है कि विभिन्न देशों में सरकारी कामकाज कितना साफ-सुथरा है, किस देश में भ्रष्टाचार कितना कम या अधिक हुआ है। इस रिपोर्ट से तमाम देशों की साख कुछ न कुछ बनती या बिगड़ती है, उनकी छवि पर असर पड़ता है।
इस रिपोर्ट की अहमियत इसीलिए है। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की ताजा रिपोर्ट के सूचकांक पर नजर डालें तो पहली नजर में भारत की स्थिति कुछ सुधरी हुई दिखती है। लेकिन वास्तव में भारत 2014 में जहां था वहीं पिछले साल भी। सूचकांक में विभिन्न देशों को सौ से शून्य तक अंक दिए जाते हैं। जिस देश को जितने अधिक अंक मिले होते हैं, समझिए कि वहां भ्रष्टाचार उतना ही कम है। मसलन, डेनमार्क को अट्ठानबे अंक मिले हैं, जहां भ्रष्टाचार दुनिया में सबसे कम या न के बराबर है।
इसके बाद फिनलैंड का नंबर है और फिर स्वीडन का। जाहिर है, उत्तरी यूरोप में सबसे ज्यादा पारदर्शिता है। हिंसा, सामाजिक अंसतोष और तनाव के भी सबसे कम मामले यहीं मिलेंगे। विकसित देशों में सबसे कम विषमता भी इन्हीं देशों में दिखेगी। इसलिए इनके विकास मॉडल दशकों से विचार का विषय रहे हैं। पर ये बहुत कम आबादी वाले तथा विकसित देश हैं। इनसे भारत की तुलना करना ठीक नहीं होगा। पर सवाल है कि हम किस दिशा में किस गति से बढ़ रहे हैं? भ्रष्टाचार पर काबू पाने या उसे कम करने में हमें कितनी सफलता मिली है?
इसका उत्तर निराशाजनक है, सूचकांक में हमारा ग्राफ थोड़ा ऊपर चढ़ने के बावजूद। भारत को 2014 में भी अड़तीस अंक मिले थे, ताजा रिपोर्ट में भी उतने ही अंक मिले हैं। दरअसल, सूचकांक में स्थिति थोड़ी सुधरने की वजह यह है कि 2014 की सूची में एक सौ चौहत्तर देश शामिल थे, जबकि 2015 की बाबत आई रिपोर्ट में एक सौ अड़सठ देश शामिल हैं। यानी भारत कुछ पायदान ऊपर आया है, तो सूची में शामिल देशों की संख्या में हुई कुछ कमी के कारण। लब्बोलुआब यह कि भारत में भ्रष्टाचार की स्थिति पूर्ववत है।
आखिर भ्रष्टाचार कोलेकर तमाम शोर-शराबे और भ्रष्टाचार के खिलाफ एक बड़े आंदोलन के बावजूद भारत वहीं का वहीं क्यों खड़ा है? राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी ही इसकी सबसे बड़ी वजह रही है। लोकपाल कानून बनने के करीब दो साल बाद भी लोकपाल संस्था का गठन नहीं हो पाया है। विसलब्लोअर कानून से संबंधित संशोधन विधेयक अधर में है। कई राज्यों में लोकायुक्त नहीं हैं। जिन राज्यों में लोकायुक्त हैं भी, कर्नाटक को छोड़ दें तो, उन्हें पर्याप्त संसाधन और अधिकार हासिल नहीं हैं। कार्रवाई करना तो दूर, जांच कराने के लिए भी उन्हें संबंधित राज्य सरकार का मुंह जोहना पड़ता है।
उनकी भूमिका सिफारिशी होकर रह गई है। यही नहीं, कई बार लोकायुक्त का पद भी समय से नहीं भरा जाता, जिसका एक उदाहरण हाल में लोकायुक्त की नियुक्ति को लेकर उत्तर प्रदेश के विवाद से सामने आया। सीबीआई को स्वायत्त करने की मांग बरसों से होती रही है। सर्वोच्च अदालत ने यूपीए सरकार के समय एक मामले की सुनवाई करते हुए सीबीआई को ‘पिंजरे में कैद तोता’ कह कर अपनी नाराजगी जताई थी। भाजपा विपक्ष में रहते हुए सीबीआई की स्वायत्तता की वकालत करती थी, पर अब जब वह केंद्र की सत्ता में है, पता नहीं क्यों इस बारे में हिम्मत नहीं जुटा पा रही है! कोई हैरत की बात नहीं कि भ्रष्टाचार के मामले में भारत उसी पायदान पर है जहां 2014 में थ