भारतीय राजनीति की एक बड़ी विडंबना यह है कि जब जरूरतमंद लोग सत्ता और व्यवस्था के सामने अपने अधिकारों के लिए गुहार लगाते हैं या लाचार बेठौर रहते हैं तब तक नेताओं को इनकी सुध लेना जरूरी नहीं लगता। लेकिन जब उनकी बदहाली या त्रासदी किन्हीं वजहों से मुद्दा बन जाती है तो राजनीतिक खुद को ‘उद्धारक’ बताते हुए प्रकट हो जाते हैं। शनिवार को दिल्ली के शकूरबस्ती इलाके में सैकड़ों झुग्गियों को ढहाने की घटना और इस बीच एक बच्ची की मौत की खबर पर चढ़ा सियासी तापमान इसी बात का उदाहरण है।

झुग्गियां उजाड़ दिए जाने के बाद जब वहां के बच्चों और महिलाओं सहित सभी पीड़ित लोग खुले आसमान के नीचे कड़ाके की ठंड झेल रहे थे, अलग-अलग पार्टियों के नेता अपनी राजनीति चमकाने में लग गए। एक बच्ची की मौत की खबर के बाद जब मामले ने तूल पकड़ लिया तब दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने घटनास्थल का दौरा किया। नेताओं के बीच जिस तरह के आरोप-प्रत्यारोप सामने आए, उन्हें पीड़ितों के साथ इनके सरोकार के बजाय मौके को भुनाने की कोशिश ज्यादा माना जाना चाहिए। सवाल है कि दिल्ली के किसी इलाके में भारतीय रेलवे की ओर से इस तरह झुग्गियां ढाह दी जाती हैं, उनमें किसी तरह जिंदगी गुजारते लोग कड़ाके की ठंड में बेघर हो जाते हैं, तो यह पीड़ितों को राहत पहुंचाने और समस्या से निपटने का वक्त होना चाहिए या फिर एक दूसरे को जिम्मेदार ठहराने का!

संभव है कि झुग्गी बस्ती के लोगों को पहले नोटिस दिया गया था। लेकिन झुग्गियां नहीं हटाए जाने के बाद उन पर बुलडोजर चलाते वक्त इस बात का खयाल रखना जरूरी क्यों नहीं समझा गया कि बिना किसी सुविधा के खुले आसमान के नीचे लोग कैसे ठंड की मार का सामना करेंगे? दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस कार्रवाई को अमानवीय करार देते हुए रेलवे, दिल्ली पुलिस और दिल्ली सरकार से जवाब तलब किया है। शायद सबकी सहमति इस बात पर हो कि बिना पुनर्वास का इंतजाम किए किसी को बेघर नहीं किया जाना चाहिए।

लेकिन इस प्राथमिक मानवीय जिम्मेदारी को निभाना संबंधित महकमों को जरूरी नहीं लगता। करीब पांच साल पहले सुप्रीम कोर्ट यह निर्देश दे चुका है कि राज्य सरकारें बेघर लोगों के लिए स्थायी रैन बसेरे बनाएं। लगभग छह महीने पहले प्रधानमंत्री ने भी कहा था कि हर बेघर परिवार को आवास की सुविधा मुहैया कराना सरकार का दायित्व है। लेकिन हकीकत सबके सामने है।

जब अपने गांव-घर से विस्थापित या रोजी-रोटी का ठिकाना खोजते लोग शहरों की शरण लेते हैं और किसी निर्जन जगह पर, नाले या रेल लाइन के किनारे सिर छिपाने का अस्थायी ठौर बना रहे होते हैं, तब न तो सरकार उन्हें रोकती है न कोई पार्टी इसकी मांग उठाती है, न उनके लिए वैकल्पिक इंतजाम किया जाता है। ऐसा शायद इसलिए होता है कि विभिन्न राजनीतिक दल झुग्गी बस्तियों में रहने वालों को वोट बैंक समझते हैं। इसके लिए बढ़-चढ़ कर उनके उसी झुग्गी बस्ती के पते से पहचानपत्र बनवाए जाते हैं, दूसरी कुछ सुविधाएं भी मुहैया कराई जाती हैं।