पिछले साल दिसंबर से तुलना करें तो आज पाकिस्तान के प्रति भारत सरकार का रुख एकदम पलट चुका है। तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अफगानिस्तान से लौटते हुए अचानक नवाज शरीफ के घर जा पहुंचे थे। उनके इस चौंका देने वाले पड़ाव को भारत-पाकिस्तान के रिश्तों में सौहार्द के नए अध्याय की शुरुआत और करिश्माई कूटनीति का बेजोड़ दांव कहा जा रहा था। उसके विपरीत, अब पाकिस्तान के साथ ज्यादा से ज्यादा कड़ाई में ही भलाई की बातें की जा रही हैं। सख्ती का आलम यह है कि पहले खबर आई कि वित्तमंत्री अरुण जेटली सार्क के वित्तमंत्रियोंं की बैठक में हिस्सा लेने इस्लामाबाद नहीं जाएंगे। फिर, भारत ने कश्मीर पर विदेश सचिव स्तरीय वार्ता के पाकिस्तान के प्रस्ताव को ठुकरा दिया, यह कहते हुए कि पाकिस्तान को जम्मू-कश्मीर के हालात के किसी भी पहलू पर बोलने का कोई अधिकार नहीं है, जो कि भारत का आंतरिक मसला है; इस मामले में पाकिस्तान केवल इतना कर सकता है कि वह सीमापार से जारी आतंकवाद और घुसपैठ को बंद करे। विदेश सचिव स्तरीय वार्ता की पेशकश से पहले भारत को कश्मीर पर चर्चा के लिए आमंत्रित करते हुए पाकिस्तान ने कहा था कि इस मसले को सुलझाना दोनों देशों की ‘अंतरराष्ट्रीय जिम्मेदारी’ है। लेकिन भारत ने साफ कर दिया कि इस तरह की वार्ता में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं है; उसकी निगाह में न इसकी कोई जरूरत है न औचित्य। भारत के इतना कड़ा रुख अख्तियार करने की कुछ वजहें समझी जा सकती हैं। हिज्बुल मुजाहिदीन के कमांडर बुरहान वानी के मारे जाने के बाद घाटी में फैली अशांति में पाकिस्तान की दिलचस्पी और भूमिका होने के कई तथ्य सामने आ चुके हैं।
पठानकोट कांड की जांच के सिलसिले में पाकिस्तान पर भरोसा करके हाथ जला चुकी मोदी सरकार को यह भी नागवार गुजरा कि सार्क के गृहमंत्रियों की बैठक में राजनाथ सिंह के इस्लामाबाद जाने पर पाकिस्तान ने ऐन सम्मेलन स्थल के बाहर चरमपंथियों को विरोध-प्रदर्शन करने की इजाजत दे दी। खुद नवाज शरीफ कश्मीर पर चिढ़ाने वाले बयान देने से बाज नहीं आए। लेकिन सवाल है कि पाकिस्तान से वार्ता के दरवाजे बंद करने का फैसला फौरी है, या टिकाऊ? 2008 के मुंबई कांड के बाद भी भारत ने पाकिस्तान से बातचीत बंद कर दी थी। मगर एक समय के बाद उसे वार्ता की मेज पर आना पड़ा। याद रहे, वह वाजपेयी सरकार ही थी जिसने पाकिस्तान से संघर्ष विराम समझौता किया और मुशर्रफ के साथ शिखर वार्ता की थी। खुद मोदी सरकार के समय विदेश सचिव स्तरीय बैठक रद््द करने और फिर मोदी के पेरिस में नवाज शरीफ से मिलने तथा लाहौर में उनके घर जा पहुंचने के वाकये हुए। दरअसल, अंतरराष्ट्रीय समुदाय कतई नहीं चाहता कि एटमी हथियारों से लैस दो पड़ोसी देश आपसी तनाव बढ़ाते रहें और टकराव के कगार पर पहुंच जाएं। इसलिए दोनों देशों पर बातचीत की मेज पर आने का दबाव जब-तब पड़ता रहता है। मोदी अचानक लाहौर गए थे, तो इसके पीछे एक प्रमुख कारण अंतरराष्ट्रीय बिरादरी को आश्वस्त करना भी रहा होगा। तो क्या बलूचिस्तान-गिलगित और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर का मुद््दा उठा कर पाकिस्तान को घेरने की कोशिश के पीछे राजग सरकार का मकसद नवाज शरीफ को बचाव की मुद्रा में लाना और फिर सुविधाजनक तरीके से वार्ता का एजेंडा तय करना है, या गर्जन-तर्जन का ऐसा माहौल बनाना है कि घरेलू राजनीति में उसका भरपूर लाभ उठाया जा सके?