वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी विधेयक को लोकसभा में मंजूरी मिल गई, पर विपक्षी दलों के रुख को देखते हुए राज्यसभा में इस पर सहमति बन पाना मुश्किल है। विपक्ष की मांग है कि विधेयक की संसदीय समिति से समीक्षा कराने के बाद ही इसे कानून का दर्जा दिया जाए। मगर सरकार हड़बड़ी में है। उसे लगता है कि अगर विधेयक को संसदीय समिति के पास भेजा गया तो वहां काफी देर हो सकती है।

इस तरह इसे अगले वित्त वर्ष से लागू करना संभव नहीं हो पाएगा। हालांकि जीएसटी की रूपरेखा यूपीए सरकार ने बनाई थी और राज्य सरकारों के साथ कई स्तरों की बातचीत और संसदीय समिति की समीक्षा के बाद इसे अंतिम रूप दे पाई थी। हालांकि तब भी, खासकर भाजपा शासित कई राज्य इसके विरोध में थे। उनमें अंतरराज्यीय कर निर्धारण को लेकर सबसे अधिक आपत्ति गुजरात को थी। अब राजग सरकार ने लगभग सभी राज्यों से इस विधेयक पर रजामंदी हासिल कर ली है।

इसलिए वित्तमंत्री का तर्क है कि जब सभी राज्य सरकारें इस पर सहमत हैं तो संसद को आपत्ति क्यों होनी चाहिए। कुछ राजनीतिक दलों का कहना है कि संविधान संशोधन से जुड़े किसी भी विधेयक को संसदीय समिति से समीक्षा के बगैर पेश नहीं किया जाना चाहिए। कुछ दलों का कहना है कि पेट्रोलियम पदार्थों और शराब जैसी वस्तुओं को भी इसके दायरे में लिया जाना चाहिए। मगर इस अधिनियम में कुछ बिंदु अब भी ऐसे हैं, जिनके तकनीकी पक्षों पर विचार की जरूरत से इनकार नहीं किया जा सकता। अगर सरकार इसे नजरअंदाज करती है तो आगे चल कर विवाद की गुंजाइश हमेशा बनी रहेगी।

सरकार ने जीएसटी की दर सत्ताईस फीसद प्रस्तावित की है, जबकि दुनिया भर में इसकी औसत दर सोलह फीसद के आसपास है। हालांकि सरकार की दलील है कि यह सिर्फ दो सालों के लिए लागू है और जैसे-जैसे राज्यों का घाटा पूरा होता जाएगा, इसकी दर घटेगी। मगर इसके आकलन की क्या व्यवस्था होगी, अभी स्पष्ट नहीं है। दूसरी सबसे जटिल तकनीकी अड़चन वस्तुओं की अंतरराज्यीय आवाजाही को लेकर है। गुजरात सरकार की मांग थी कि एक राज्य से दूसरे राज्य में वस्तुओं को ले जाने पर दो प्रतिशत कर लगाया जाए। राजग सरकार ने बातचीत करके उसे एक प्रतिशत निर्धारित कर दिया है। मगर इसका आकलन करने के लिए कोई व्यावहारिक और पारदर्शी तरीका नहीं सुझाया गया है, जिससे पता चले कि किस राज्य में कितनी मात्रा में वस्तुओं का अंतरराज्यीय आवागमन हुआ। फिर यह कैसे तय हो कि जिन वस्तुओं को एक से दूसरे राज्य में ले जाया जा रहा है वे सभी बाजार में बेचने के मकसद से भेजी गई हैं।

अक्सर कंपनियां विभिन्न शहरों में अपने गोदाम, कच्चे माल के प्रसंस्करण संयंत्र या फिर अन्य कारखाने खोले रहती हैं। उन्हें अपने ही सामान को दिन में कई बार एक से दूसरे स्थान पर भेजना या वहां से मंगाना पड़ता है। इस तरह जितनी बार वे माल की ढुलाई करेंगी, उन्हें उतनी बार अंतरराज्यीय कर चुकाना होगा। ऐसे ही दूरसंचार आदि जैसी सेवाओं से जुड़ी कंपनियों को भी इस परेशानी का सामना करना पड़ सकता है। लिहाजा जीएसटी के जरिए वस्तुओं और सेवाओं की कीमतें कम होने को लेकर किए जा रहे दावे पर सवालिया निशान स्वाभाविक है। फिर जीएसटी में बदलाव की प्रक्रिया को लेकर भी उलझन बनी हुई है। इसलिए वस्तु एवं सेवा कर विधेयक को पारित कराने में हड़बड़ी के बजाय सरकार को पहले इससे जुड़े भ्रमों को दूर करने का प्रयास करना चाहिए।

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