गणतंत्र दिवस के दिन लालकिले पर हमले के बाद अब विचित्र किस्म से किसान आंदोलन का विरोध शुरू हो गया है। उस दिन जो कुछ हुआ, वह निस्संदेह शर्म का विषय है। उसे लेकर स्वाभाविक ही बहुत सारे लोगों के मन में क्षोभ है। उस पर किसान नेता भी अपनी शर्मिंदगी जाहिर कर चुके हैं। दिल्ली पुलिस बहुत सारे आंदोलनाकारियों और किसान नेताओं के खिलाफ मुकदमे दर्ज कर चुकी है।

मगर दिल्ली की सीमाओं पर बैठे किसानों का अब स्थानीय लोगों ने भी विरोध शुरू कर दिया है। उनका कहना है कि किसान उनका इलाका खाली कर दें। इसे लेकर सिंघू बार्डर पर स्थानीय लोगों ने विरोध प्रदर्शन किया। आंदोलन पर बैठे नेताओं के साथ उनकी हिंसक झड़प भी हुई। वहां उनके तंबू और सामान तोड़े गए। पत्थरबाजी में कई किसान घायल हो गए।

ऐसा ही विरोध टिकरी, गाजीपुर और शाहजहांपुर बार्डर पर भी देखने को मिला। कुछ गांवों की पंचायतों ने फैसला सुनाया कि किसान उनका इलाका खाली कर दें। जिन लोगों के समर्थन से अभी तक किसान सीमाओं पर धरना दिए बैठे थे, अगर उन्हीं की तरफ से दबाव बनना शुरू हो जाएगा, तो जाहिर है आंदोलन पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। मगर इसके उलट यह भी देखा जा रहा है कि किसान अब नए सिरे से एकजुट होने लगे हैं।

यों लालकिले पर हुई घटना को लेकर कई तरह की चर्चाएं हैं। उस घटना की तस्वीरों और पुलिस कार्रवाई में शिथिलता आदि को लेकर प्रशासन भी सवालों के घेरे में है। सत्तापक्ष के समर्थक जिस तरह तुरंत सक्रिय हो गए और विरोध प्रदर्शन पर उतर आए, गाजीपुर बार्डर पर स्थानीय विधायक की अगुआई में बड़ी संख्या में भाजपा समर्थक लामबंद दिखे, उससे भी सत्तापक्ष पर सवाल उठने शुरू हो गए हैं। इसलिए स्थानीय लोगों का विरोध भी संदिग्ध नजर आने लगा है। आम लोगों का चीजों को देखने का नजरिया निरपेक्ष कम ही देखा जाता है।

लोकतंत्र में इसे बुरा भी नहीं कहा जा सकता कि लोग किसी राजनीतिक दल के समर्थक हों और वे विपक्षी दलों या सत्तापक्ष के विरोध में उठने वाली आवाजों के विरोध में खड़े नजर आएं। यह उनका लोकतांत्रिक अधिकार है। मगर कई बार विरोध की दिशा गलत होने से कई घटनाओं की जांच और वास्तविक मुद्दे प्रभावित होते हैं। यह भी कोई नई बात नहीं है कि सत्तापक्ष और तमाम राजनीतिक दल अपने एजेंडे के पक्ष में लोगों को उकसाते-भड़काते रहते हैं। उन्हें अपने राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करते हैं। इसलिए हर आंदोलन के विरोध में कुछ लोग देखे ही जाते हैं।

मगर फिलहाल चल रहा किसान आंदोलन जिस तरह दिनो-दिन बड़ा रूप लेता जा रहा है और इसके समर्थन में अलग-अलग वर्गों के लोग भी उतर रहे हैं, जो सड़कों पर उनके साथ नहीं हैं, उनमें से भी बहुत सारे लोग मन से इस आंदोलन के साथ नजर आ रहे हैं। ऐसे में इस आंदोलन को महज किसी दुराग्रह या राजनीतिक स्वार्थ के चलते सरकार का विरोध नहीं माना जा सकता।

इसमें संवैधानिक मूल्यों की रक्षा का भी प्रश्न जुड़ गया है। इसलिए केवल राजनीतिक समर्थक होने के नाते कुछ लोगों को यह आंदोलन नागवार गुजर रहा है, तो उनसे स्वाभाविक ही अपेक्षा की जा रही है कि वे जनतांत्रिक तरीके से इस पर विचार करें। यह आंदोलन निहायत शांतिपूर्ण तरीके से चलता आ रहा है, अगर स्थानीय लोग उन पर पत्थरबाजी या किसी और तरह से हमला करके उन्हें हिंसा के लिए उकसाने का प्रयास करेंगे, तो इससे सामाजिक ताने-बाने पर भी बुरा असर पड़ सकता है।