सरकार और रिजर्व बैंक के बीच चला आ रहा विवाद फिलहाल सुलझ गया लगता है। इसे अच्छा संकेत इसलिए माना जाना चाहिए कि रिजर्व बैंक वह सर्वोच्च निकाय है जो देश के बैंकिंग तंत्र को नियंत्रित करता है। ऐसे में अगर किन्हींं मुद्दों पर सरकार के साथ शीर्ष बैंक का टकराव होता है तो बाजार, उद्योग जगत और आम जनता के बीच अच्छा संदेश नहीं जाता। इसलिए यह जरूरी था कि सरकार और केंद्रीय बैंक के बीच चला आ रहा गतिरोध जल्द दूर हो। देश की मौद्रिक और आर्थिक नीतियों के निर्माण में भी रिजर्व बैंक की बड़ी भूमिका होती है। ऐसे में यह जरूरी है कि शीर्ष बैंक और सरकार में किसी भी मुद्दे पर खींचतान की नौबत न आए। मौजूदा विवाद की नींव इस साल फरवरी में तब पड़ी जब रिजर्व बैंक ने एनपीए के मसले पर बैंकों को कसना शुरू किया। सरकारी बैंक डूबते कर्ज यानी एनपीए की गंभीर समस्या से जूझ रहे हैं। पिछले कुछ सालों में बैंकों ने नियमों को ताक पर रखते हुए जिस तरह अंधाधुंध कर्ज बांटे थे, उसी से एनपीए की समस्या खड़ी हुई थी और इसीलिए अब रिजर्व बैंक ने बैंकों पर सख्ती की थी। ऐसे में कदम उठा कर रिजर्व बैंक ने कुछ गलत नहीं किया था।

लेकिन सरकार और शीर्ष बैंक के बीच विवाद यहीं तक ही सीमति नहीं रहा। जुलाई में सरकार ने रिजर्व बैंक पर इस बात के लिए दबाव डाला कि वह छोटे और मझोले उद्योगों को कर्ज देने के मामले में ढील दे। बैंकों के डूबते कर्ज की वजह से केंद्रीय बैंक ने व्यावसायिक बैंकों पर इन उद्योगों को कर्ज देने के मामले में सख्ती कर दी थी, इस वजह से अर्थव्यवस्था पर असर पड़ता दिखा। तब सरकार को लगा कि दखल दिया जाना चाहिए और उसने धारा-7 के तहत शक्तियों का इस्तेमाल करने की बात कही। इससे विवाद इतना ज्यादा बढ़ गया कि रिजर्व बैंक के एक डिप्टी गवर्नर ने तो सरकारी दखल पर गंभीर नतीजों की बात तक कह डाली। बीच में ऐसी खबरें भी आर्इं कि रिजर्व बैंक के गवर्नर सरकारी दखल से इतने आहत हैं कि इस्तीफा भी दे सकते हैं। ऐसी स्थिति इससे पहले कभी नहीं आई थी। आरबीआइ के कामकाज और स्वायत्तता में सरकार की ऐसी दखल उस पर शिकंजा कसना ही है, ताकि केंद्रीय बैंक सरकार की इच्छानुरूप ही फैसले करे।

लेकिन सवाल है कि अब क्या होगा! आरबीआइ बोर्ड की बैठक में विवाद के बड़े बिंदुओं पर सहमति बन गई है। जैसे, रिजर्व बैंक अब इस बात पर विचार करेगा कि जिन ग्यारह सरकारी बैंकों पर उसने कर्ज बांटने पर रोक लगा रखी थी, उसमें ढील दी जाए। इसके अलावा सरकार की निगाह केंद्रीय बैंक के आरक्षित कोष पर लगी है। सरकार रिजर्व बैंक से इस जमा पूंजी से पैसा मांग रही है, ताकि अटकी परियोजनाओं को पूरा किया जा सके। शीर्ष बैंक के लिए यह बड़ा जोखिम है। यह ऐसा आपात कोष होता है जिसे बैंक संकट के समय ही निकालता है। लेकिन बैठक में यह तय हुआ कि एक विशेष समूह का गठन किया जाएगा जो तय करेगा कि केंद्रीय बैंक की इस जमा पूंजी से सरकार को कितना पैसा दिया जाए। बैंक के पास साढ़े नौ लाख करोड़ से ज्यादा का जमा कोष है। जाहिर है, सरकार जो चाह रही थी वही सब हुआ। रिजर्व बैंक की अपनी चिंताएं वाजिब हैं। ऐसे में कौन हारा या कौन जीता, मुद्दा यह नहीं है। सवाल है कि केंद्रीय बैंक जिस खजाने की सुरक्षा को लेकर चिंतित है, अब वह कितना सुरक्षित रह पाएगा, यह वक्त बताएगा।