किसी भी समाज के सभ्य और संवेदनशील होने का पैमाना इससे तय किया जाना चाहिए कि उसका स्त्रियों और कमजोर तबकों के प्रति क्या रवैया है! लेकिन ज्यादातर समाजों में विकास के दिखने वाले कारकों पर ध्यान दिया जाता है और सामाजिक विकास के इस सवाल की अनदेखी की जाती है कि स्त्रियों के क्या अधिकार हैं और उन्हें कैसा जीवन जीना पड़ रहा है। घर की दहलीज से बाहर महिलाओं के खिलाफ सामान्य आपराधिक घटनाएं तो एक बड़ी समस्या हैं ही, अपने ही परिवार में हिंसा का सामना करने वाली स्त्रियों की स्थिति शायद ज्यादा जटिल होती है। वडोदरा के एक गैरसरकारी संगठन ‘सहज’ ने ‘इक्वल मीजर्स 2030’ के साथ मिल कर किए गए अपने अध्ययन की रिपोर्ट में लैंगिक आधार पर हिंसा को देश की सबसे बड़ी चिंताओं में से एक बताते हुए यह तथ्य उजागर किया है कि भारत में करीब एक-तिहाई शादीशुदा महिलाएं पति के हाथों हिंसा का शिकार होती हैं। इससे ज्यादा परेशान करने वाली बात यह है कि कई महिलाओं को पति के हाथों पिटाई से कोई गुरेज नहीं है।
इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि देश में इतनी बड़ी तादाद में महिलाओं को पति की हिंसा का सामना करना पड़ता है और उनकी सुरक्षा के लिए घरेलू हिंसा के विरुद्ध कानून सहित कई व्यवस्थाओं के बावजूद यह एक तल्ख सामाजिक हकीकत है कि उनके पास विरोध करने के विकल्प सीमित होते हैं। पति के हिंसक बर्ताव को सही ठहराना एक विचित्र स्थिति है। लेकिन यह समझना मुश्किल नहीं है कि इसके पीछे पितृसत्तात्मक ढांचे पर टिका समाज और उसके तहत महिलाओं का भी हुआ समाजीकरण मुख्य कारण है। इसमें उन्हें सोचने-समझने की वही दृष्टि हासिल होती है, जिससे अंतिम तौर पर पुरुष-वर्चस्व कायम रहता है। दरअसल, यह पितृसत्तात्मक मूल्यों की हिंसा है, जो बचपन से पुरुषों के भीतर भरे जाते हैं। इस लिहाज से देखें तो भारत में शिक्षा और आर्थिक व्यवस्था में भागीदारी के लिए अलग-अलग मोर्चों पर होने वाली कवायदों में स्त्रियों और पुरुषों के भीतर बचपन से ही पितृसत्तात्मक मूल्यों से तैयार मानस पर सवाल उठाने और उससे लड़ने की दृष्टि के विकास को शामिल नहीं किया जाता। यही वजह है कि कई बार एक आर्थिक रूप से सशक्त व्यक्ति अपने सम्मान और अधिकारों सही परिप्रेक्ष्य में नहीं देख पाता।
अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक, एक ओर भारत में आर्थिक विकास की दर अच्छी बताई जाती है, वहीं जाति, वर्ग और लिंग के आधार पर भेदभाव के शिकार लोगों के लिए समान विकास हासिल करने में यह काफी पीछे है। जहां तक हमारे देश का सवाल है, पिछले कुछ सालों में विकास को अर्थव्यवस्था के आंकड़ों के आईने में ही देखा जाता रहा है। लेकिन इस बीच समाज में महिलाओं की स्थिति और उनके प्रति सामाजिक नजरिए में क्या बदलाव आया, इस पर गौर करना जरूरी नहीं समझा गया। एक व्यक्ति के रूप में स्त्री के सम्मान और गरिमा को अधिकार के रूप में देखना और स्वीकार करना विकास के दूसरे क्षेत्रों को भी औचित्य प्रदान करता है। विडंबना यह है कि बहुत सारे समुदायों में भौतिक विकास के पैमाने पर हुए काम को ही आधिकारिक रूप से दर्ज किया जाता है और व्यक्ति की गरिमा और सम्मान के सवाल की अनदेखी की जाती है। इसका हासिल यही होता है कि नजरअंदाज किए गए सामाजिक समूहों की स्थिति विकास पर एक सवाल की तरह होती है, जिसे वाजिब ठहरा पाना कई बार संभव नहीं होता। यों भी, आर्थिक विकास में शामिल सभी कारक तब तक बेमानी हैं, जब तक उसमें एक वंचित समूह के रूप में स्त्रियों के प्रति दृष्टिकोण और मानसिकता में बराबरी कायम नहीं हो पाती।