यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी की पहल पर हुई विपक्षी दलों की बैठक से कोई साफ निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी होगी। बैठक राजग सरकार की नीतियों और चाल-ढाल के विरुद्ध विपक्ष की एकजुटता के इरादे से बुलाई गई थी। सोनिया गांधी समेत कांग्रेस के सभी नेताओं ने इस वक्त विपक्ष की एकता को देश के लिए जरूरी बताया। सत्रह पार्टियों के प्रतिनिधियों की भागीदारी वाली इस बैठक को शुरू में ही संबोधित करते हुए सोनिया गांधी ने एक तरह से बैठक का एजेंडा तय कर दिया। उन्होंने महंगाई, बेरोजगारी, किसानों पर छाए संकट, कासगंज समेत देश के कई हिस्सों में नफरत की लकीर पर हुई घटनाओं का हवाला देते हुए कहा कि राष्ट्रीय महत्त्व के मुद्दों पर विपक्ष को एकजुट होना चाहिए। फिर, राहुल गांधी और कांग्रेस के अन्य नेताओं ने भी इसी आशय की बातें कहीं। बैठक में दूसरे दलों के नेताओं ने भी विपक्ष की एकता की आवश्यकता बताई। पर एकता को कैसे व्यावहारिक बनाया जाए, और इसका स्वरूप क्या हो, यह एक ऐसा सवाल है जिस पर विपक्षी दलों का मिजाज अलग-अलग रहा है। ममता बनर्जी और शरद पवार जैसे विपक्ष के दिग्गजों को लगता है कि वे पुराने तथा अनुभवी नेता हैं और वही विपक्ष को एक कर सकते हैं या विपक्ष को उन्हीं के नेतृत्व में एकजुट होना चाहिए। पिछले दिनों शरद पवार ने विपक्षी दलों की बैठक बुला कर शायद यही जताना चाहा होगा। हो सकता है सोनिया गांधी की पहल से साझा बैठक बुलाने के पीछे कांग्रेस का इरादा सबको यह अहसास कराना रहा हो कि विपक्ष की धुरी अब भी वही है।
पार्टी अध्यक्ष पद पर राहुल गांधी की ताजपोशी के बाद यह विपक्ष की पहली साझा बैठक थी। एक समय राहुल गांधी के बारे में कहा जा रहा था कि वे पार्टी में नई जान नहीं फूंक पा रहे हैं। लेकिन अब कांग्रेस राहुल गांधी को लेकर उत्साहित दिख रही है। पहले मोदी के गढ़ गुजरात से कांग्रेस के लिए हौसला आफजाई वाले नतीजे आए, और अब राजस्थान के उपचुनावों के नतीजों से उसके हौसले बुलंदी पर हैं। अगले लोकसभा चुनाव से पहले जिन कई राज्यों के चुनाव होने हैं उनमें राजस्थान भी है। यह सही है कि महज दो-चार सीटों के उपचुनावों के आधार पर किसी व्यापक रुझान का दावा नहीं किया जा सकता, लेकिन यह जरूर कहा जा सकता है कि अब भाजपा और मोदी खुद को चुनौतीविहीन मान कर नहीं चल सकते। विपक्ष अगर राष्ट्रीय स्तर पर एकजुट हो सके, तो भाजपा के लिए परेशानी का सबब बन सकता है। लेकिन राज्यों के स्तर पर गैर-राजग दलों के अपने-अपने विरोधाभास हैं। सबसे ज्यादा लोकसभा सीटों वाले राज्य उत्तर प्रदेश की दो प्रमुख गैर-राजग पार्टियों का व्यवहार इसी का एक उदाहरण है।
ताजा बैठक में समाजवादी पार्टी तो शामिल हुई, पर बसपा गैर-हाजिर रही। फिर, माकपा में कांग्रेस के साथ मेलजोल को लेकर दो राय हैं, जिसका संकेत पिछले दिनों कोलकाता में हुई केंद्रीय समिति की बैठक के समय मिला। भाजपा की बढ़ी हुई राजनीतिक ताकत से सबसे ज्यादा माकपा चिंतित है, पर वह भी कांग्रेस के साथ मिल कर कोई मोर्चा बनाने के सवाल पर दुविधा में है। फिर, केरल में तो माकपा की मुख्य प्रतिद्वंद्वी पार्टी कांग्रेस ही है। इन सब अंतर्विरोधों का अहसास कांग्रेस को भी होगा। शायद इसीलिए सोनिया गांधी ने कहा कि राज्यों में विभिन्न विरोधी दलों के अलग-अलग हित हो सकते हैं, और यह स्वाभाविक है, पर उन्हें राष्ट्रीय महत्त्व के मुद््दों पर एकजुट होना चाहिए। लेकिन समस्या यह है कि क्षेत्रीय दलों के लिए राज्यों के समीकरण ज्यादा मायने रखते हैं। कांग्रेस इस गुत्थी को कैसे सुलझाएगी!