जम्मू-कश्मीर पर स्वाभाविक रूप से दुनिया की नजर रहती है। पाकिस्तान इस इलाके को लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी दावेदारी के बारे में गलतबयानी करता रहता है, वहां आतंकवाद फैलाने में जुटा हुआ है। हालांकि, ऐसी गतिविधियों में अपना कोई हाथ होने से भी वह लगातार इनकार करता रहा है, लेकिन उसकी कारगुजारियां जगजाहिर हैं। दूसरी ओर, भारत सरकार ने वहां आतंकवाद पर काफी हद तक काबू पा लिया है और अब जम्मू-कश्मीर के विधानसभा चुनाव में लोग काफी उत्साह से मतदान कर रहे हैं। दूसरे चरण के मतदान के दौरान घाटी में विभिन्न देशों के वरिष्ठ राजनयिकों का दौरा हुआ है। उन लोगों ने विभिन्न मतदान केंद्रों पर लोगों से बात की।

कूटनीति के लिहाज से यह कवायद सार्थक लगती है। मतदान के दौरान विदेश मंत्रालय ने दिल्ली स्थित दूतावासों में कार्यरत राजनयिकों के लिए घाटी की यात्रा आयोजित की। इसके पीछे तर्क दिया गया कि इससे विभिन्न देशों तक जम्मू-कश्मीर के हालात की असल जानकारी पहुंच सकेगी। पहले चरण में मतदाताओं का काफी उत्साह दिखा। दूसरे चरण में भी मतदान के आंकड़े उत्साहजनक रहे। हालांकि, राजनयिकों की इस यात्रा पर विपक्षी दलों ने एतराज जताया है। नैशनल कांफ्रेंस के उमर अब्दुल्ला ने तल्ख लहजे में कहा कि हमें इन राजनयिकों के प्रमाणपत्र की जरूरत नहीं है। केंद्र सरकार विदेशी पत्रकारों को घाटी में आने की इजाजत नहीं देती, तो राजनयिकों को यहां लाकर आखिर क्या साबित करना चाहती है।

दरअसल, अनुच्छेद 370 हटने और केंद्र शासित राज्य बनने के बाद घाटी में पैदा हुए हालात को लेकर दो विपरीत धारणाएं फैलाई जाती रही हैं। केंद्र सरकार का दावा है कि विशेष राज्य का दर्जा खत्म होने के बाद घाटी में स्थिति बेहतर हुई है, जबकि विपक्षी दल लगातार आरोप लगाते रहे हैं कि वहां हालात ठीक नहीं हैं। आतंकी घटनाओं और सुरक्षा बलों पर हमले बढ़ने को लेकर भी सवाल उठाए जाते रहे हैं। इन सबके बावजूद विधानसभा चुनाव में लोग बढ़-चढ़ कर मतदान करते देखे जा रहे हैं। पहले चरण में साठ फीसद से अधिक मतदान हुआ। दूसरे चरण में भी खूब उत्साह देखा जा रहा है। ऐसे में, केंद्र सरकार खुलकर कह सकती है कि विशेष राज्य का दर्जा हटाने का उसका फैसला गलत नहीं था और लोग उससे खुश हैं।

भारत ने हमेशा ठुकराई मध्यस्थता की बात

अनुच्छेद 370 हटने के बाद, करीब चार वर्ष पहले भी यूरोपीय संसद के सदस्यों को घाटी में ले जाया गया था। तब भी सवाल उठाए गए थे। तब सरकार ने कहा था कि वह यात्रा एक स्वयंसेवी संगठन ने आयोजित की थी। पिछले महीने भी अमेरिका और जर्मनी के राजनयिकों को जम्मू-कश्मीर की यात्रा कराई गई थी। दरअसल, जम्मू-कश्मीर को लेकर भारत-पाकिस्तान के बीच विवाद पर जब भी किसी देश ने मध्यस्थता की बात उठाई, भारत सरकार ने हमेशा उसे ठुकराया है।

भारत सरकार का रुख रहा है कि जम्मू-कश्मीर हमारा आंतरिक मामला है। इस नीति के हवाले से राजनयिकों के दौरे पर सवाल उठ रहे हैं। आलोचकों का कहना है कि कहीं कश्मीर को लेकर फिर मध्यस्थता के लिए दबाव का सामना न करना पड़े। हालांकि, सरकार आश्वस्त है कि ऐसी नौबत नहीं आएगी और कूटनीतिक मंचों पर पाकिस्तान के तर्कों हमेशा की तरह कमजोर किया जा सकेगा। बहरहाल, समूची कवायद में यह स्वागत योग्य है कि वहां लोकतंत्र की ताकत दिखी और इससे विदेशी राजनयिक भी रूबरू हुए।