हर वर्ष इस मौसम में तापमान में गिरावट और जाड़े की आहट के साथ ही दिल्ली की हवा बिगड़नी शुरू हो जाती है। विडंबना यह है कि बीते कई वर्षों से लगभग एक ही स्वरूप में प्रदूषण के गहराने से उपजी समस्या का सामना करने के बावजूद इस पर काबू पाने के लिए कोई ठोस योजना नहीं दिखती है।
इस वर्ष एक बार फिर नवंबर से पहले ही दिल्ली की हवा में प्रदूषण घुलने का जो स्तर देखा जा रहा है, अगर वह किसी तरह नियंत्रित नहीं हुआ तो आने वाले दिन दिल्ली में रहने वाले लोगों के लिए मुश्किल साबित हो सकते हैं। अभी ही हालत यह है कि दिल्ली की हवा खतरनाक स्तर तक जाने लगी है और यहां कई इलाकों में बुजुर्गों और बच्चों को सांस लेने में दिक्कत का सामना करना पड़ रहा है।
जबकि फिलहाल यह ठंड के मौसम का शुरुआती दौर है। गौरतलब है कि अक्तूबर से ही दिल्ली में हवा का घनीभूत होना शुरू हो जाता है और इसके साथ ही धूल और धुएं की वजह से प्रदूषण की समस्या जटिल होनी शुरू हो जाती है। जाहिर है, इसमें धूल और धुएं के स्रोतों की पहचान और उसे नियंत्रित करना एक तात्कालिक जरूरत होती है।
सोमवार को दिल्ली सहित समूचे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की हवा ‘बहुत खराब’ श्रेणी में दर्ज की गई। वायु गुणवत्ता और मौसम पूर्वानुमान एवं अनुसंधान प्रणाली यानी ‘सफर’ के मुताबिक महानगर में इस दिन सुबह एक्यूआइ यानी वायु गुणवत्ता सूचकांक 309 और कुछ इलाकों में 335 तक पहुंच गया था। यह स्थिति तब है जब दिल्ली में पराली जलाने से होने वाले प्रदूषण को रोकने के लिए भी कुछ कदम उठाए गए थे।
इससे उपजी समस्या का सामना करने के लिए दिल्ली सरकार की ओर से ‘ग्रेप- 2’ की पाबंदियां लागू कर दी गई हैं। इसके तहत डीजल जेनरेटर के इस्तेमाल पर पूरी तरह रोक लगाने के साथ-साथ गाड़ियों की पार्किंग में शुल्क बढ़ा दिए जाते हैं। सीएनजी, इलेक्ट्रिक बसें और मेट्रो सेवाओं की आवृत्ति में बढ़ोतरी कर दी जाती है, ताकि लोग निजी वाहनों का इस्तेमाल कम से कम करें। इसके अलावा कई अन्य उपाय भी किए जाते हैं और सांस या दिल के मरीजों को घर से नहीं निकलने की सलाह दी जाती है।
विचित्र यह है कि वर्षों से प्रदूषण और उसके कारणों के लगभग एक स्वरूप में कायम रहने के बावजूद इससे निपटने के लिए सरकार के पास किसी सुचिंतित योजना का अभाव दिखता है। जब प्रदूषण से उपजी मुश्किलें गहराने लगती हैं और यह सार्वजनिक बहस का मुद्दा बनने लगता है, तब सरकार वाहनों और अन्य स्रोतों से निकलने वाले धुएं की रोकथाम की बात करने लगती है।
मसलन, इसमें सबसे प्राथमिक होता है सड़क पर चल रहे वाहनों की संख्या और उसके प्रकार को नियंत्रित करना। फिर धूल-रोधी यंत्रों के जरिए भी प्रदूषण की लगाम थामने की कोशिश की जाती है। कुछ समय पहले दिल्ली के मुख्यमंत्री ने प्रदूषण पर काबू पाने के लिए कृत्रिम बारिश कराने की भी बात की थी। मगर केवल घोषणाओं के जरिए किसी भी समस्या से पार पाना संभव नहीं होता है।
यों भी ऐसे उपायों से कुछ समय तक के लिए और एक हद तक तो आबोहवा में कुछ फर्क महसूस हो सकता है, लेकिन जब तक प्रदूषण फैलाने वाले कारकों और उनकी जड़ों की पहचान करके उनसे निपटने के दीर्घकालिक उपाय नहीं किए जाएंगे, तब तक दिल्ली की आबोहवा आम लोगों के स्वास्थ्य और जीवन के लिए जोखिम का जरिया बनी रहेगी।