गुरुवार की सुबह जिस तरह हुर्रियत नेताओं की नजरबंदी हुई और दो घंटे के भीतर ही उन्हें छोड़ दिया गया उससे अच्छा संदेश नहीं गया है। अगर सरकार की निगाह में नजरबंदी जायज थी, तो थोड़ी ही देर में उन्हें रिहा करने की जरूरत क्यों महसूस हुई? अफसरों ने न तो उनकी नजरबंदी का कारण बताया न ही रिहाई का। पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के संभावित दिल्ली आगमन से तीन रोज पहले की गई इस कार्रवाई ने कई गंभीर सवाल उठाए हैं। विदेश नीति के मोर्चे पर मोदी सरकार की कई अहम उपलब्धियां गिनाई जा सकती हैं। पर पाकिस्तान की बाबत पिछले पंद्रह महीनों में उसने कई बार विरोधाभासी रुख अपनाया है।
एक बार फिर यह जाहिर हुआ कि पाकिस्तान के प्रति उसके रवैए में निरंतरता का अभाव है। साल भर पहले दोनों देशों के बीच विदेश सचिव स्तर की बातचीत भारत सरकार ने रद्द कर दी थी, इस बिना पर कि पाकिस्तान के उच्चायुक्त ने अपने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार से मिलने के लिए हुर्रियत नेताओं को क्यों आमंत्रित किया। मगर मार्च में पाकिस्तान के राष्ट्रीय दिवस पर जब वहां के उच्चायोग ने हुर्रियत नेताओं को भी बुलाया, तो केंद्र ने उस पर खामोशी रखी। यही नहीं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उस मौके पर शिरकत के लिए केंद्रीय मंत्री और पूर्व सेनाध्यक्ष वीके सिंह को भेजा था। फिर अब हुर्रियत को लेकर इतनी हायतौबा क्यों?
केंद्र के कुछ मंत्री और भाजपा के अनेक नेता कई बार यह दोहरा चुके हैं कि वार्ता और आतंकवाद साथ-साथ नहीं चल सकते। प्रधानमंत्री मोदी ने भी कहा था कि वे आतंकवाद की छाया से मुक्त माहौल में बातचीत चाहते हैं। लेकिन गुरदासपुर और ऊधमपुर की आतंकवादी घटनाओं के बावजूद भारत सरकार ने दोनों तरफ के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की प्रस्तावित बैठक रद्द घोषित नहीं की। पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार सरताज अजीज से हुर्रियत नेताओं की मुलाकात की संभावना को लेकर सरकार इतनी परेशान क्यों है?
क्या इसलिए कि मुलाकात होने देने पर यह सवाल उठेगा कि पिछले साल विदेश सचिव स्तर की बातचीत क्यों रद्द की गई थी? लेकिन एक अतिवादी निर्णय को क्यों दोहराया जाए। जब हाल की आतंकवादी घटनाओं के बावजूद सरकार ने द्विपक्षीय राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार वार्ता को हरी झंडी दे दी, तो सरताज अजीज से हुर्रियत के मिलने के कार्यक्रम को इतना तूल क्यों दिया? इससे पाकिस्तान को ही फायदा हुआ है, कश्मीर विवाद की तरफ दुनिया का ध्यान खींचने में उसे मदद मिली है। वाजपेयी सरकार और यूपीए सरकार के समय भी इस तरह की मुलाकातें हुई थीं और उन सरकारों ने इसे लेकर आसमान सिर पर नहीं उठाया था।
पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार से हुर्रियत के नुमाइंदों की मुलाकात को कश्मीर मसले पर त्रिपक्षीय वार्ता नहीं माना जा सकता। फिर, अजीज के आने की खबर के साथ ही मोदी सरकार ने यह साफ कर दिया कि यह समग्र वार्ता की बहाली नहीं है, सिर्फ आतंकवाद के मुद््दे पर बातचीत होगी। ऐसे में सारा ध्यान हुर्रियत पर केंद्रित कर देना और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की बैठक को लेकर अनिश्चय का माहौल बनने देना ठीक नहीं है।
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