हरियाणा में एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी की आत्महत्या और उससे जुड़े तथ्यों के संबंध में जैसी खबरें आई हैं, वे विचलित करने वाली हैं। यह अफसोसनाक है कि देश में फैली कुरीतियों और दुराग्रहों को दूर करने की उम्मीद जिस तंत्र से की जाती है, कई बार वह खुद भी इससे मुक्त नहीं दिखता है। गौरतलब है कि हरियाणा में भारतीय पुलिस सेवा के एक वरिष्ठ अधिकारी वाई पूरन कुमार ने कुछ वरिष्ठ अधिकारियों की ओर से लगातार ‘असहनीय उत्पीड़न’ से तंग आकर आत्महत्या कर ली। उन्हें अधिकारों और अन्य मुद्दों से संबंधित मामलों में मुखर हस्तक्षेप के लिए जाना जाता था।
खबरों के मुताबिक, एक ‘आखिरी नोट’ में उन्होंने कुछ अधिकारियों पर मानसिक उत्पीड़न, जाति आधारित भेदभाव, सार्वजनिक अपमान और दुर्भावनापूर्ण तरीके से छद्म शिकायतें दर्ज कराने आदि का गंभीर आरोप लगाया। भारतीय पुलिस सेवा के तहत अपने पद पर काम करते हुए किसी उच्च अधिकारी के सामने भी अगर आत्महत्या की नौबत आती है तो यह हर स्तर पर चिंता की बात होनी चाहिए। सवाल है कि सरकारी तंत्र के भीतर भी दबाव की राजनीति कैसे इस तरह काम करती है कि एक व्यक्ति के सामने जीने-मरने का सवाल आ खड़ा हो।
सार्वजनिक अपमान, अत्याचार या जाति-आधारित भेदभाव
सही है कि हमारे समाज में आज भी समाज के हाशिये के तबकों के खिलाफ बहुस्तरीय भेदभाव और उत्पीड़न की जड़ें गहरी दिखाई देती हैं और कमजोर पृष्ठभूमि के लोग कई बार इसका सामना नहीं कर पाते। लेकिन उम्मीद की जाती है कि पद, प्रभाव या आर्थिक हैसियत में सक्षम होने के बाद किसी व्यक्ति के खिलाफ सार्वजनिक अपमान, अत्याचार या जाति-आधारित भेदभाव करना आसान नहीं होता।
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अफसोस की बात है कि इस तरह के द्वेष के मनोविज्ञान और उसके काम करने का ढांचा इतना जटिल और बारीक होता है कि कई बार इसका शिकार होने वालों के सामने विकल्प सिमटते जाते हैं। हालांकि हरियाणा में पुलिस अधिकारी की आत्महत्या की घटना में जांच का कोण फिलहाल उनके ‘आखिरी नोट’ पर निर्भर है, लेकिन इसकी गहन और पारदर्शी तरीके से जांच इसलिए भी जरूरी है कि आरोपों की सत्यता सामने आए, दोषियों के खिलाफ कार्रवाई हो और यह सभी स्तर पर एक सबक का काम करे।