यह स्थापित तथ्य है कि अधिकतर सरकारी योजनाएं अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंच पातीं। भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती हैं। महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना यानी मनरेगा की स्थिति भी इससे अलग नहीं है। इस योजना की शुरूआत इस मकसद से की गई थी कि गरीब परिवारों को साल में कम से कम सौ दिन रोजगार मिल सकेगा और उन्हें अपने भरण-पोषण के लिए किसी दूसरी योजना का मुखापेक्षी नहीं रहना पड़ेगा। मगर शुरूआती वर्षों में ही इसमें भ्रष्टाचार उजागर होने लगे थे। फर्जी नाम दर्ज कर काम देने की बड़ी चालबाजियां सामने आई थीं।

उसे रोकने के कई उपाय किए गए, पर इस पर पूरी तरह विराम नहीं लग सका। इस योजना को बंद करने या इसका स्वरूप बदलने का फैसला इसलिए नहीं किया जा सका कि संविधान में इसकी गारंटी दी गई है। सरकारी योजनाओं में भ्रष्टाचार का ताना-बाना संबंधित महकमों में ही बुना जाता है। इसका ताजा उदाहरण गुजरात में मनरेगा के तहत फर्जी तरीके से कार्य निष्पादन के दस्तावेज तैयार कर करोड़ों की रकम भुना लेने का है। पुलिस ने इस मामले में अब तक ग्यारह लोगों को गिरफ्तार किया है, जिन्हें सड़क, बांध, पुलिया आदि निर्माण के लिए सामग्री मुहैया कराने का ठेका दिया गया था।

बड़े पैमाने पर घोटाला होने का लगाए जा रहे कयास

इस घोटाले ने इसलिए तूल पकड़ा और राजनीतिक रंग ले लिया है कि इसमें वहां के पंचायत और कृषि राज्यमंत्री के दो बेटों को भी गिरफ्तार किया गया है। उनकी एजंसियां भी मनरेगा परियोजनाओं में शामिल थीं। उन्होंने कार्यों का निष्पादन किए बगैर फर्जी दस्तावेज जमा कर भुगतान प्राप्त कर लिया। मनरेगा की जिन परियोजनाओं में उन्होंने घोटाला किया, वे वहां के आदिवासी इलाकों में चलाई जा रही थीं। इसके अलावा, फिलहाल जांच में पैंतीस ऐसी एजंसियों के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया गया है, जिन्होंने 2021 से 2024 के बीच सरकारी अधिकारियों से मिलीभगत करके जाली दस्तावेजों के आधार पर इकहत्तर करोड़ रुपए का भुगतान प्राप्त कर लिया।

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अभी तक जिला ग्रामीण विकास एजंसी यानी डीआरडीए की जांच में सामने आए एक जिले के तथ्यों के आधार पर ये गिरफ्तारियां हुई हैं। इसलिए कयास लगाए जा रहे हैं कि पूरे राज्य में इस योजना के तहत कितने बड़े पैमाने पर घोटाला हुआ होगा। उन आदिवासी इलाकों में बुनियादी सुविधाओं की स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है, जिनके लिए ये परियोजनाएं चलाई तो गई थीं, पर वे केवल कागजों में दर्ज होकर रह गईं।

जमीन पर कम ही उतर पाते हैं गरीबों के लिए चलाई गई योजनाएं

आमतौर पर गरीबों के लिए चलाई जाने वाली योजनाएं और कार्यक्रम जमीन पर कम ही उतर पाते हैं। दिखाने के लिए जो कुछ काम होते भी हैं, उनकी गुणवत्ता सदा संदिग्ध रहती है। उनमें इस्तेमाल सामग्री और कामकाज की गुणवत्ता इस कदर खराब होती है कि सड़कें, पुल-पुलिया वगैरह पहली ही बारिश में धुल कर साफ हो जाते हैं।

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ग्रामीण विकास के नाम पर अनेक योजनाएं चलाई जाती हैं, केंद्र और राज्य दोनों सरकारों की तरफ से, मगर वास्तव में उनसे गांवों का चेहरा कितना बदला है, कहना मुश्किल है। ऐसे वक्त में, जब अस्सी करोड़ से ऊपर लोगों को मुफ्त के राशन पर निर्भर रहना पड़ रहा है, मनरेगा जैसी रोजगार गारंटी योजना में इतने बड़े पैमाने पर व्याप्त भ्रष्टाचार विकास के दावों का विद्रूप ही कहा जाएगा। गुजरात को विकास के आदर्श के रूप में प्रचारित किया जाता है। जब वहां स्थिति ऐसी है, तो दूसरे राज्यों में इस योजना की हालत का अंदाजा लगाया जा सकता है।