यह विचित्र है कि एक ओर किसान अपनी मांगों के साथ लगातार आंदोलन पर हैं और सरकार इसे सुलझाने के बजाय उदासीन रवैया अख्तियार किए हुए है। हालत यह है कि उसकी ओर से शीर्ष अदालत तक के आदेशों की जैसी व्याख्या की जा रही है, उससे एक भ्रम की स्थिति पैदा हो रही है। गौरतलब है कि किसान नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल न्यूनतम समर्थन की कानूनी गारंटी सहित अन्य मांगों के मसले पर पिछले एक महीने से ज्यादा वक्त से अनशन पर हैं। उनकी बिगड़ती सेहत के मद्देनजर उन्हें चिकित्सा सुविधा दिलाने को लेकर सुप्रीम कोर्ट कई बार पंजाब सरकार को कह चुका है। मगर हैरानी की बात है कि इस मसले पर सकारात्मक रुख दिखाने के बजाय पंजाब सरकार की ओर से न सिर्फ टालमटोल का रवैया प्रदर्शित किया जा रहा है, बल्कि अदालत की बातों को भी संदर्भ से अलग रूप में पेश किया जा रहा है। यही वजह है कि शीर्ष अदालत ने गुरुवार को सुनवाई के दौरान एक बार फिर पंजाब सरकार को फटकार लगाई और उसके आदेशों को सही संदर्भों में देखने को कहा।
दरअसल, अनशन की वजह से डल्लेवाल की गिरती सेहत के मद्देनजर सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से पंजाब सरकार को ठोस कदम उठाने कहा। मगर पंजाब सरकार के अधिकारियों ने उसे इस रूप में पेश किया कि किसान नेता का अनशन तुड़वाने की कोशिश हो रही है। स्वाभाविक ही सुप्रीम कोर्ट ने पंजाब सरकार को फटकार लगाते हुए साफ कहा कि उसके कुछ अधिकारी गैर-जिम्मेदाराना बयानबाजी कर रहे हैं और मीडिया में भ्रम का माहौल बना रहे हैं। जबकि तथ्य यह है कि अदालत ने डल्लेवाल का अनशन तुड़वाने को लेकर कोई निर्देश नहीं दिया है, बल्कि उनकी सेहत को लेकर चिंता जाहिर की है और केंद्र सरकार को भी नोटिस जारी कर जवाब मांगा है। अब सुप्रीम कोर्ट की नाराजगी के बाद पंजाब सरकार ने यह सुनिश्चित करने का भरोसा दिया है कि किसान नेता का अनशन तुड़वाए बिना उन्हें चिकित्सा सहायता मुहैया कराने की कोशिश की जाएगी। सवाल है कि पंजाब सरकार के अधिकारियों को किसानों की मांग, उनके एक अहम नेता के अनशन और अदालती निर्देशों को राजनीतिक दांवपेच में उलझाने की जरूरत क्यों पड़ी।
इससे पहले सुप्रीम कोर्ट के आदेश और डल्लेवाल की बिगड़ती सेहत के बावजूद पंजाब सरकार तय समय-सीमा में किसान नेता को अस्पताल में भर्ती नहीं करा सकी। उसकी दलील है कि वह इस मसले पर बल प्रयोग नहीं करना चाहती। हैरानी की बात है कि बल प्रयोग नहीं करने की दुहाई देने वाली सरकार को किसानों की मांग पर कोई व्यापक सहमति बनाने के लिए अपनी ईमानदार इच्छाशक्ति का प्रदर्शन करना जरूरी नहीं लगता।
दूसरी ओर, किसानों का धरना खत्म होना इस बात पर निर्भर करता है कि केंद्र सरकार इस पर क्या रुख अख्तियार करती है। मगर यह समझना मुश्किल है कि जब खुद एक संसदीय समिति भी न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कानूनी गारंटी देने की सिफारिश कर चुकी है, तब भी सरकार को इस ओर कोई स्पष्ट कदम उठाना जरूरी क्यों नहीं लगता। अगर इस तरह के टालमटोल भरे रवैये की वजह से किसान नेता की सेहत खराब होती है या कोई अन्य अप्रत्याशित स्थिति पैदा होती है, तो उसके बाद किसकी जवाबदेही तय की जाएगी। जरूरत इस बात की है कि किसानों के आंदोलन में उठाए गए मांगों पर समय रहते सहमति बनाने के लिए कोई ठोस पहल की जाए और इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की अहमियत समझी जाए।