गहराते प्रदूषण संकट के बीच ठंड बढ़ने के साथ ही कोहरे की मार पड़ने लगी है। राष्ट्रीय राजमार्गों पर आए दिन गाड़ियों के टकराने की खबरें आ रही हैं। मंगलवार को धुंध के कारण यमुना एक्सप्रेसवे पर आगरा से नोएडा के बीच सात बसों और तीन गाड़ियों के टकराने एवं कई अन्य शहरों में भी इसी तरह की दुर्घटनाओं में 25 लोगों की जान जाने के बाद यह बहस तेज हो गई है कि जवाबदेही कौन लेगा और कैसे रोकथाम के लिए कोई रास्ता निकलेगा।
अभी तक तो प्रदूषण एवं धुंध के कारण बढ़ते संकट के बीच राजनीतिक बयानबाजी भर सामने आती रही है और जिम्मेदारी से बचने की कोशिश में सत्ता प्रतिष्ठान एवं प्रशासन दिखा है। हालात ये हैं कि सुप्रीम कोर्ट की तल्ख टिप्पणियों का कोई असर नहीं पड़ रहा है। दिल्ली और आसपास के इलाकों में प्रदूषण की समस्या धीरे-धीरे गंभीर होती है और धुंध बढ़ने के साथ राजमार्गों पर दुर्घटनाएं बढ़ने लगती हैं। राजमार्गों पर धुंध के बीच रफ्तार पर लगाम को लेकर न कोई चेतावनी है, न कोई अंकुश।
दरअसल, प्रदूषण का गहराता संकट मौसम की मार तो है ही, सरकार की अनदेखी और लापरवाही से समस्या में कई गुना बढ़ोतरी हुई है। इस तरह की दिक्कतों को लेकर चर्चा होती है, लेकिन सरकार की ओर से कोई ठोस कदम नहीं उठाए जाते। हाल में खबर आई कि दिल्ली दुनिया की सर्वाधिक प्रदूषित राजधानी है। एक रिपोर्ट के मुताबिक, देश के सर्वाधिक प्रदूषित 32 शहरों में ग्यारह हरियाणा के पाए गए।
स्पष्ट है कि दिल्ली और आसपास के इलाकों में आसमान में धुएं की परत के आगे बेबसी है। सरकारी स्तर पर कवायद घोषणाओं और आरोप-प्रत्यारोप तक सीमित दिखती है। यही वजह है कि पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र व राज्य सरकारों को फटकार लगाई कि प्रदूषण रोकने के लिए जमीनी स्तर पर प्रयास न के बराबर हैं।
दरअसल, हर साल ठंड शुरू होते ही हवा की दशा-दिशा में बदलाव के साथ ही आसमान में धुएं की परत जमने लगती है। यही वजह है कि पराली संकट व अन्य कारणों से बढ़ते प्रदूषण से चिंतित सुप्रीम कोर्ट को कहना पड़ा कि प्रदूषण मुक्त वातावरण में रहना नागरिकों का मौलिक अधिकार है।
हालत यह है कि बहुत सारे लोगों के सामने सांस से संबंधित परेशानियों सहित कई तरह की मुश्किलें पैदा हो रही हैं, लेकिन अब भी प्रदूषण को कम या दूर करने के लिए कोई ईमानदार इच्छाशक्ति नहीं दिखती। किसानों के मुद्दों को जोर-शोर से उठाकर श्रेय लेने वाले राजनेताओं की जवाबदेही तय होनी चाहिए।
बंपर पैदावार का श्रेय लेने वाले नेता तब कहां चले जाते हैं, जब पराली जलाने का संकट पैदा होता है? यह भी हकीकत है कि प्रदूषण संकट के मूल में सिर्फ पराली समस्या ही नहीं है। हमारी उपभोक्ता संस्कृति, वाहनों का अंबार, सार्वजनिक यातायात सुविधा का पर्याप्त न होना, अनियोजित निर्माण कार्य, जीवाश्म ईंधन का प्रयोग तथा कूड़े का वैज्ञानिक तरीके से निस्तारण न होना भी प्रदूषण संकट के मूल में है।
शासन को भी आग लगने पर कुआं खोदने की मानसिकता से बचना होगा और दूरगामी प्रभावों वाली नीतियां लागू करनी होंगी। जवाबदेही तय होनी चाहिए।
