कर्नाटक के बंगलुरु और तमिलनाडु के अरियालुर में पटाखों के जखीरे में आग लगने से कम से कम तेईस लोगों की जान चली गई। इससे फिर यही साबित होता है कि प्रशासनिक लापरवाही की कीमत नाहक आम लोगों को चुकानी पड़ती है। गौरतलब है कि शनिवार को बंगलुरु के अट्टीबेले इलाके में पटाखे की एक दुकान में आग लग गई, जिसकी चपेट में आकर चौदह लोगों की मौत हो गई। वहां दशहरा और दिवाली में कारोबार के मद्देनजर भंडारण करने के लिए वाहन से पटाखे उतारे जा रहे थे कि उनमें आग लग गई।

एक के बाद एक दो दुकानों-गोदामों में आग लगने से हुई बड़ी हानि

इसके बाद समूची दुकान और गोदाम आग की चपेट में आ गए। हादसे के वक्त वहां पैंतीस से ज्यादा लोग काम कर रहे थे, लेकिन गनीमत यह रही कि उनमें से कई लोग किसी तरह अपनी जान बचा सके। इस त्रासदी पर लोग दुख जता ही रहे थे कि सोमवार को तमिलनाडु के अरियालुर में भी पटाखे के एक गोदाम में आग लग गई और उसमें नौ लोगों की जान चली गई।

घटना के बाद सक्रिय प्रशासन मुआवजा देकर हो जाता है बेफिक्र

आमतौर पर ऐसी घटनाओं को हादसा मान लिया जाता और सरकार इसी नजर से जिम्मेदार लोगों के खिलाफ कार्रवाई करती है। मगर सवाल है कि हर वर्ष पटाखे की दुकानों, गोदामों और कारखानों में लापरवाही की वजह से आग लगने की घटनाएं सामने आती रहती हैं, लेकिन संबंधित इलाकों का प्रशासन तभी इस मसले पर कुछ सक्रिय दिखता हैं, जब कोई बड़ा हादसा हो जाता और मामला तूल पकड़ लेता है। कर्नाटक या तमिलनाडु में भी हादसे के बाद दोनों सरकारों ने जिम्मेदार लोगों को कानून के कठघरे में खड़ा करने और पीड़ितों को मुआवजा देने की घोषणा की है।

सवाल है कि ऐसी त्रासदी की आशंका लगातार बनी रहने के बावजूद संबंधित सरकारी महकमे समय रहते बचाव का कोई पुख्ता इंतजाम क्यों नहीं करते। सरकारी दस्तावेजों में इससे संबंधित नियम-कायदे दर्ज होंगे, लेकिन उसे जमीन पर उतारने को लेकर शायद ही कभी गंभीरता दिखती है। यों सवाल उठने पर सरकार हमेशा सख्ती के दावे करती है, लेकिन आखिर पटाखे का कारोबार करने वालों को कैसे यह छूट मिल जाती है कि वे निर्धारित नियमों को ताक पर रख कर इस कारोबार में व्यापक स्तर पर लापरवाही बरतते हैं और इसका खमियाजा वहां काम करने वालों को भुगतना पड़ता है?

दिवाली और इसके आसपास के अन्य त्योहारों के नजदीक आने के साथ ही पटाखा फैक्ट्रियों में उत्पादन बढ़ जाता है। थोक और खुदरा दुकानों में इसका भंडारण किया जाने लगता है। मगर इससे होने वाले हादसों की संवेदनशीलता का ध्यान रखने की जरूरत नहीं समझी जाती। नतीजतन, हर वर्ष देश के अलग-अलग हिस्से में पटाखा गोदामों और फैक्ट्रियों में आग लगने तथा उसमें जानमाल की भारी तबाही की खबरें आती रहती हैं। निश्चित तौर पर यह महज अंधाधुंध कमाई के लिए पटाखा कारोबारियों की ओर से बरती जाने वाली जानलेवा लापरवाही है, मगर पटाखे से आग लगने की आशंका की अनदेखी करने का दुस्साहस उनमें कैसे आता है?

अगर पटाखों की बिक्री को रोका नहीं जा सकता तो क्या यह जरूरी नहीं है कि आग लगने के लिहाज से बेहद संवेदनशील होने के मद्देनजर पटाखों के निर्माण से लेकर इसके समूचे कारोबार और उपयोग को पूरी तरह नियंत्रित तरीके से संचालित किया जाए? किसी बड़े हादसे के सामने आने से पहले तक प्रशासन किस नींद में होता है? ऐसी स्थिति में आखिरी जिम्मेदारी किसकी तय की जाएगी? हर हादसे के बाद केवल जांच, कार्रवाई और मुआवजे की घोषणा करके लंबे समय से कायम इस समस्या से पार नहीं पाया जा सकता।