करीब छह महीने से शंभू सीमा पर चल रहे किसानों के आंदोलन और उनकी मांगों पर अब तक कोई सहमति नहीं बन पाई है, तो यह अपने आप में एक बड़ा सवाल है कि सरकारी तंत्र को इसकी कितनी फिक्र है। जो काम सरकार को खुद अपनी ओर से करना चाहिए था, किसानों से संवाद करके शंभू सीमा को खोलने से लेकर अन्य मसलों पर सहमति बनाने की कोशिश करनी चाहिए थी, उसका रास्ता अदालत को बनाना पड़ रहा है। गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वह किसानों की शिकायतों का ‘हमेशा के लिए’ सौहार्दपूर्ण समाधान करने के लिए जल्द ही एक बहुसदस्यीय समिति का गठन करेगा।
प्रदर्शनकारी किसान इस वर्ष फरवरी से अपनी मांगों के साथ डेरा डाले हुए हैं
गौरतलब है कि शीर्ष अदालत पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट के उस आदेश को चुनौती देने वाली हरियाणा सरकार की याचिका पर सुनवाई कर रहा है, जिसमें उसे अंबाला के पास शंभू सीमा पर लगाए गए अवरोधकों को एक हफ्ते के भीतर हटाने के लिए कहा गया था। वहां प्रदर्शनकारी किसान इस वर्ष की फरवरी से अपनी मांगों के साथ डेरा डाले हुए हैं।
यह विचित्र है कि कुछ फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य सहित अन्य कुछ मांगों का मसला इतना जटिल मान लिया गया है कि किसानों को इसके लिए छह महीने से सड़क पर धरना देना पड़ रहा है। हालांकि इससे पहले सरकार के साथ एक बैठक के बाद किसान राजमार्ग को आंशिक रूप से खोलने पर सहमत हो गए थे। इस सिलसिले में शीर्ष अदालत ने पंजाब और हरियाणा की सरकारों से कहा कि वे किसानों के साथ संवाद का रास्ता अपनाएं और उन्हें राजमार्ग से अपने ट्रैक्टर और ट्रालियां हटाने के लिए राजी करें। मगर अब भी इससे संबंधित मुद्दों पर कोई सहमति नहीं बन पाई है, तो निश्चित रूप से यह सरकार की नाकामी ही कही जाएगी।
यह समझना मुश्किल नहीं है कि इतने लंबे समय से शंभू सीमा पर एक व्यस्त सड़क के अवरुद्ध होने से आम लोगों को कैसी दिक्कतों का सामना करना पड़ता होगा। सरकार के सामने यह प्राथमिक सवाल होना चाहिए था कि वह किसानों की मांगों पर विचार करते हुए, बिना देरी किए वहां आवाजाही को सामान्य बनाने पर सहमति बनाती।