दिल्ली में यमुना के ऐन किनारे विश्व सांस्कृतिक समारोहनाम से विशाल जमावड़े के आर्ट आॅफ लिविंग फाउंडेशन के आयोजन पर शुरू से पर्यावरणीय सवाल उठ रहे थे। राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) के अंतरिम फैसले से भी जाहिर हुआ कि ये सवाल बेबुनियाद नहीं थे। एनजीटी ने पांच करोड़ रुपए के आरंभिक जुर्माने के साथ आयोजन को हरी झंडी दी। साथ ही कहा कि बाकी मुआवजा आयोजक संस्था से बाद में पर्यावरणीय क्षति का आकलन करके वसूला जाएगा।
इस फैसले का संदेश साफ है कि कोई भी व्यक्ति या संस्था कानून से ऊपर नहीं है। पर विवाद यह दर्शाता है कि हैसियत और रसूख के आगे नियम-कायदे किस तरह लाचार हो जाते हैं। आध्यात्मिक गुरु के रूप में प्रसिद्ध श्री श्री रविशंकर आर्ट आॅफ लिविंग फाउंडेशन के संस्थापक और प्रमुख हैं। क्या यह उनके प्रभाव का प्रताप है कि इस आयोजन के लिए फाउंडेशन को धड़ाधड़ सारी मंजूरी मिलती गई। पर्यावरण मंत्रालय से लेकर दिल्ली सरकार तक, सारे संबंधित महकमे नतमस्तक दिखे। लेकिन इस प्रक्रिया की पोल खुल गई, जब एनजीटी के निर्देश पर गठित समिति ने आयोजन स्थल का निरीक्षण कर पाया कि यमुना के जलग्रहण क्षेत्र और जैव विविधता को भारी नुकसान होगा।
उसने अपनी रिपोर्ट में एक सौ बीस करोड़ रुपए के जुर्माने की सिफारिश भी की। यह मामला दिल्ली हाईकोर्ट में भी पहुंचा था। हाईकोर्ट ने इसे पर्यावरणीय तबाही कहा; अलबत्ता एनजीटी में चल रही सुनवाई के कारण हाईकोर्ट ने कोई आदेश पारित करने से मना कर दिया। विडंबना यह है कि एनजीटी की ओर से गठित समिति के इस निष्कर्ष पर पहुंचने के बाद भी कि यमुना तट पर होने जा रहा विशाल आयोजन वहां के जलग्रहण क्षेत्र की बर्बादी का कारण बनेगा, केंद्र सरकार की मेहरबानी जारी रही। उसकी अतिशय दिलचस्पी और उदारता का अंदाजा दो तथ्यों से लगाया जा सकता है। एक यह कि सेना को वहां पंटून पुल बनाने में लगाया गया। दूसरे, संस्कृति मंत्रालय ने सवा दो करोड़ रुपए के अनुदान की घोषणा की। तिस पर तुर्रा यह कि जीने की कला सिखाने वाले गुरु ने कहा कि वे जुर्माना नहीं भरेंगे, भले जेल चले जाएं।
जुर्माना न भरने की सूरत में क्या प्रधानमंत्री का वहां जाना उचित होगा? राष्ट्रपति पहले ही आने से मना कर चुके हैं। श्री श्री ने पिछले दिनों अपने बचाव में कई बार यह दोहराया कि उनकी संस्था पर्यावरण संरक्षण को प्राथमिकता देती है और उन्होंने यमुना की सफाई के लिए अभियान चलाया था। पर यह हवाला देकर वे यह साबित नहीं कर सकते कि उनके आयोजन से यमुना को कोई पर्यावरणीय क्षति नहीं होगी। सच तो यह है कि नुकसान बड़े पैमाने पर होगा, जिसकी भरपाई शायद ही संभव हो।
जलग्रहण क्षेत्र में निर्माण कार्य की इजाजत देने पर डीडीए को एनजीटी ने उचित ही पांच लाख जुर्माने के साथ कड़ी फटकार लगाई है। जलग्रहण क्षेत्र एक तरह से नदी के पाट का ही विस्तार होता है, और वर्षाजल को समाने तथा पुनर्भरण के साथ-साथ यह बाढ़ से भी बचाता है। यही कारण है कि यमुना के किनारे अक्षरधाम मंदिर और राष्ट्रमंडल खेलगांव बनाने पर भी सवाल उठे थे। अब आर्ट आॅफ लिविंग के लोग उनका जिक्र अपने बचाव की खातिर कर रहे हैं। पर यह भोंडी दलील है। पर्यावरणीय तकाजों की पहले हुई अनदेखी का यह मतलब नहीं कि उसका अंतहीन सिलसिला चले।