एक स्वस्थ और सभ्य लोकतांत्रिक प्रणाली में विचारों का मतभेद और उनके बीच टकराव एक स्वाभाविक स्थिति है। लेकिन इसमें अपने प्रतिद्वंद्वियों के विचारों के विरोध का स्तर ऐसा होना चाहिए जिसमें एक-दूसरे के सम्मान का हनन न हो। अगर इस मामूली बात का खयाल रखा जाता है तो इससे न केवल किसी व्यक्ति या नेता के अपमान से बचा जा सकता है, बल्कि अपने व्यक्तित्व की गरिमा भी बनाए रखी जा सकती है। लेकिन भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में पिछले कुछ समय से अलग-अलग दलों के नेताओं की ओर से जिस तरह बयानबाजियां चल रही हैं, उससे ऐसा लगता है कि उनके बीच न सिर्फ अपने विपक्ष में मौजूद शख्सियतों, बल्कि लोकतांत्रिक परंपराओं तक के प्रति कोई सम्मान नहीं बचा है। ताजा विवाद उत्तर प्रदेश में मुगलसराय क्षेत्र से भाजपा की एक विधायक साधना सिंह के उस बयान से खड़ा हुआ है, जिसमें उन्होंने राज्य की पूर्व मुख्यमंत्री और बहुजन समाज की पार्टी की प्रमुख मायावती के बारे में बेहद आपत्तिजनक टिप्पणियां कर दीं। एक सभा में भाषण देते हुए उन्होंने मायावती के बारे में जिस तरह की भाषा का प्रयोग किया, कोई भी सभ्य और संवेदनशील व्यक्ति उसका समर्थन नहीं कर सकता, वह भले ही खुद उनकी पार्टी का हो या उनका समर्थक हो।

शायद यही वजह है कि उनके बेलगाम बयान पर राष्ट्रीय महिला आयोग ने स्वत: संज्ञान लिया। आखिरकार उन्हें अपनी कही बातों पर खेद जाहिर करना पड़ा। सवाल है कि भारतीय राजनीति में एक महिला नेता के अहम योगदान की अनदेखी करते हुए क्या उनका अपमान सिर्फ इसलिए किया जाना चाहिए कि भाजपा की नेता उन्हें अपना विपक्ष मानती हैं? भारत जैसे देश में जहां अपने दुश्मन की गरिमा का भी खयाल रखने की परंपरा रही है, वहां लोकतांत्रिक व्यवस्था में होने के बावजूद किसी नेता के खिलाफ अपमानजनक भाषा का प्रयोग किसे मजबूत करेगा? विडंबना यह है कि साधना सिंह ने यह टिप्पणी जिस मंच से की, वहां भाजपा के कुछ वरिष्ठ नेता मौजूद थे। लेकिन वहां किसी को जरूरी नहीं लगा कि इस भाषा पर खेद जताएं या विधायक को ऐसा करने के लिए कहें। लेकिन ऐसी स्थितियों का हासिल आमतौर पर सकारात्मक नहीं होता है। मामले के तूल पकड़ने के बाद न सिर्फ साधना सिंह को अपनी बातों के लिए माफी मांगनी पड़ी, बल्कि उनकी पार्टी को भी उनके बयान के लिए शर्मिंदगी उठानी पड़ी।

हालांकि यह कोई पहला मामला नहीं है जिसमें कोई नेता अपने विपक्षी की आलोचना करते हुए इस कदर बहक गया कि उसे खुद अपनी गरिमा का खयाल भी नहीं रहा। इससे पहले भी कई मौकों पर कुछ नेता अपनी बदजुबानी का प्रदर्शन कर चुके हैं। सवाल है कि इस तरह की बयानबाजियों का सिलसिला कहां जाकर रुकेगा? अपने समर्थकों को खुश करने या अपनी भड़ास निकालने के लिए मतभेद या आलोचना को सामंती जुबान में अभिव्यक्त किए जाने का चलन कैसा राजनीतिक परिदृश्य रचेगा? आखिर इस तरह की बदजुबानी किसके हक में है? इस तरह के बेलगाम बयानों से किसी नेता को फौरी फायदा मिलता हुआ भले दिखे, लेकिन सच यह है कि इसके दूरगामी असर के रूप में खुद उसके व्यक्तित्व की गरिमा कम होती है। बल्कि आज इस तरह की बोली वाले नेताओं की समझ पर सवाल उठाए जाने लगे हैं और उनकी बातों को लोग गंभीरता से लेना बंद कर रहे हैं। यह ध्यान रखने की जरूरत है कि अगर इस तरह की प्रवृत्तियों पर लगाम नहीं लगाई गई तो आने वाले वक्त में हमारे लोकतंत्र के सामने कुछ जटिल चुनौतियां खड़ी हो सकती हैं।