देश की राजधानी होने के नाते उम्मीद होती है कि दिल्ली में कानून-व्यवस्था की तस्वीर बाकी जगहों के मुकाबले बेहतर होगी और यहां अपराध की दर कम होगी। लेकिन दिल्ली में आज मामूली से लेकर जघन्य अपराधों तक की जैसी तस्वीर दिख रही है, उससे स्पष्ट है कि कानून-व्यवस्था के मोर्चे पर यहां बहुस्तरीय कमियां हैं। विचित्र है कि अपराधों की दर पर सवाल उठने पर दिल्ली और केंद्र सरकार के बीच जिम्मेदारियों को एक दूसरे पर थोपने की कोशिश होने लगती है और इस तरह समस्या पर काबू पाने को लेकर कोई ठोस पहल नहीं होती। जबकि किसी भी समस्या के हल के लिए सबसे पहले उसकी हकीकत और उसमें अपनी जिम्मेदारी को स्वीकार करना प्राथमिक जिम्मेदारी है।

अब केंद्र सरकार ने यह माना है कि दिल्ली में अपराध की स्थिति चिंताजनक है और इससे निपटने के लिए अदालती सुनवाई में तेजी लाने की जरूरत है। केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को इस स्थिति से अवगत कराया कि दिल्ली में पंचानबे खूंखार सक्रिय गिरोहों की पहचान की गई है। पिछले दस वर्षों में पांच हजार दो सौ से ज्यादा अपराध दर्ज किए गए हैं। इनमें हत्या, मादक पदार्थों और हथियारों की तस्करी और जबरन वसूली जैसे गंभीर अपराध भी शामिल हैं।

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सवाल है कि अगर केंद्र सरकार को समस्या और उसके स्वरूप के बारे में पूरी जानकारी है, तो उस पर काबू पाने के लिए उपाय निकालने की जिम्मेदारी किसकी है। दिल्ली की कानून व्यवस्था और पुलिस महकमे की जिम्मेदारी केंद्रीय गृह मंत्रालय के पास है।

ऐसे में जवाबदेही से बचने या आरोप-प्रत्यारोप के बजाय जरूरत इस बात है कि अपराधियों के बीच खौफ पैदा करने के लिए पुलिस प्रशासन को सक्रिय और चौकस रखना सुनिश्चित करने के समांतर ही शासन के अन्य मोर्चों पर ठोस सुधार किए जाएं, ताकि समाज में आपराधिक प्रवृत्तियों पर लगाम लगाई जा सके। इसमें दर्ज अपराधों की अदालत में सुनवाई में तेजी एक जरूरी पहलू है। मुकदमों के अत्यधिक बोझ की वजह से ज्यादातर मामलों की सुनवाई में देरी होती है। जाहिर है, कानून और व्यवस्था के मोर्चे पर पूरी जवाबदेही के साथ-साथ इस समस्या के लिए समर्पित न्यायालय परिसरों की जरूरत है, ताकि सुरक्षा उपायों पर बेहतर नियंत्रण और त्वरित सुनवाई में मदद मिल सके।