देश के एक बड़े हिस्से में जब नवरात्र के दौरान कन्या-पूजन और उन्हें जिमाने के अनुष्ठान चल रहे हैं तब बिहार में एक कन्या का जन्म उसकी मां के लिए मौत का सबब बन गया। हमारे देवी-पूजक समाज का यह दानवी सच बिहार के बांका जिले के कुम्हारबाक गांव में सामने आया जहां घर में जनमी बेटी की किलकारी सुनने पर पति और ससुरालवालों ने उसकी मां की बेरहमी से पिटाई कर डाली। इससे उस सद्य-प्रसूता की हालत बिगड़ने और बेहोश होने पर ससुरालवाले घर का ताला लगा फरार हो गए। बाद में पुलिस ने दरवाजा तोड़ कर शव बरामद किया। इंसानियत को शर्मसार कर देने वाली यह घटना बताती है कि हमारे समाज में बेटा पाने की चाह आदमखोर भी हो चुकी है।
पितृसत्तात्मक समाज में ‘वंश चलाने के लिए बेटा ही चाहिए’, ‘बेटियां बोझ हैं तो बेटा सहारा है’ या ‘बेटा ही वंश चला सकता है’ जैसी जड़ मान्यताएं सदियों से बड़ी संख्या में बेटियों की बलि लेती रही हैं। इस बार इन्होंने एक मां की बलि ले डाली जिसका गुनाह बस इतना था कि शादी के साल भर बाद उसने एक बेटी को जन्म दिया था। तभी से ससुराल वाले उसे प्रताड़ित करने लगे थे। लेकिन दूसरी बार भी बेटी पैदा हो गई तो इस मां को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। यह हृदयविदारक घटना बताती है कि गर्भ में लिंग परीक्षण के जरिए बेटियों को पैदा ही न होने देने, अगर पैदा हो गई तो गला घोंट कर या जहरीली जड़ी चटा कर मार डालने अथवा कूड़े के ढेर पर फेंक देने जैसे कलंक हमारे समाज के माथे पर आज भी चस्पां हैं।
एक बड़ी विडंबना यह है कि हमारे यहां बेटियों को बचाने की आवश्यकता केवल घटते लिंगानुपात के संदर्भ तक सीमित कर दी गई है जबकि इसे व्यापक मानवीय पहलुओं और संवेदनाओं के साथ देखे जाने की जरूरत है। अगर जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक अधिकतर राज्यों में लड़कियों की तुलना में लड़कों की संख्या ज्यादा है तो क्या महज उनकी खातिर बेटियों की संख्या बढ़नी चाहिए? क्या इससे इतर समाज में बेटियों की जरूरत महसूस करते हुए उनके अस्तित्व का सहज स्वागत और सम्मान नहीं किया जाना चाहिए? बेटियों को हीन और बोझ मानने वाली मानसिकता जब उनके वजूद का सहज मानवीय स्वीकार करेगी तब उन्हें बचाने के लिए शायद ही माथापच्ची करनी पड़े।
अनुभव बताता है कि यह लक्ष्य महज सरकार के भरोसे हासिल नहीं हो सकता। अगर हो पाता तो सरकार 1994 में कन्याभ्रूण हत्या रोकने का कानून बना चुकी थी। इसके तहत गर्भ परीक्षण करने वाले डॉक्टरों और केंद्रों पर शिकंजा कसने के बावजूद स्थिति में अपेक्षित सुधार नहीं आ पाया है। मौजूदा केंद्र सरकार ने भी जनवरी 2015 से ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ योजना शुरू की है। इसके अंतर्गत हर राज्य में लड़कों की तुलना में लड़कियों की कम संख्या वाले जिलों का चयन कर उनमें भ्रूणलिंग जांच पर रोक के साथ ही बालिकाओं के अस्तित्व, सुरक्षा और शिक्षा सुनिश्चित करने के काम को एक सामाजिक आंदोलन बनाकर बेटा-बेटी के बीच भेदभाव उन्मूलन के विभिन्न लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं। कहना न होगा कि यह योजना भी पूर्ववर्ती योजनाओं का दुहराव भर है। आखिर बेटियों को बचाने के सरोकार पर हमारा ऐसा चलताऊ रवैया कब तक रहेगा?