पिछले कुछ वर्षों से देश के विभिन्न हिस्सों में हिरासत में मौत की घटनाओं का मसला चिंताजनक रूप से उभर कर सामने आया है। जांच एजंसियों का काम आपराधिक मामलों में आरोपियों को न्याय के कठघरे में लाना है। दोष साबित करने के लिए सबूत जुटाने की जिम्मेदारी भी उन्हीं की होती है। ऐसे में आरोपी को हिरासत में लेकर पूछताछ करना जांच प्रक्रिया का हिस्सा है। मगर इस दौरान आरोपी की सुरक्षा का दायित्व भी संबंधित जांच एजंसी का ही होता है।

सवाल है कि अगर पुलिस या अन्य जांच एजंसियां अपने इस दायित्व को सही तरीके से निभा रही हैं, तो आए दिन हिरासत में मौत के मामले क्यों सामने आ रहे हैं? जांच प्रक्रिया में पारदर्शिता क्यों नहीं बरती जा रही है। जाहिर है कि इस मामले में कहीं न कहीं लापरवाही और मनमानी की जा रही है, जिस पर सर्वोच्च न्यायालय ने भी कड़ा संज्ञान लिया है। शीर्ष अदालत ने राजस्थान में आठ माह के भीतर पुलिस हिरासत में ग्यारह लोगों की मौत हो जाने का हवाला देते हुए मंगलवार को कहा कि हिरासत में हिंसा एवं मौत व्यवस्था पर एक धब्बा है और देश अब इसे बर्दाश्त नहीं करेगा।

यह सच है कि लोग जांच एजंसियों पर कम और न्यायपालिका पर ज्यादा भरोसा करते हैं। मगर न्याय प्रक्रिया शुरू होने से पहले ही अगर किसी आरोपी की हिरासत में मौत हो जाती है, तो निश्चित रूप से न्याय की भावना को चोट पहुंचती है। सर्वोच्च न्यायालय ने मानवाधिकारों के हनन को रोकने के लिए वर्ष 2018 और 2020 में अलग-अलग आदेशों में पुलिस थानों, केंद्रीय जांच ब्यूरो, प्रवर्तन निदेशालय और राष्ट्रीय जांच एजंसी सहित अन्य जांच एजंसियों के कार्यालयों में सीसीटीवी कैमरे तथा रिकार्डिंग उपकरण लगाने को कहा था।

इस व्यवस्था से जांच प्रक्रिया में पारदर्शिता आना स्वाभाविक था, लेकिन इस पर अमल करने में भी कई स्तरों पर कोताही बरती जा रही है। कई पुलिस थानों में सीसीटीवी न लगे होने या उनके बंद होने की खबरें अक्सर आती रहती हैं। इससे स्पष्ट है कि जांच एजंसियां हिरासत में मानवाधिकारों की रक्षा को लेकर गंभीर नहीं हैं। शीर्ष अदालत ने इस मसले पर भी संज्ञान लिया है और अब तक अनुपालन हलफनामे दाखिल नहीं करने वाले राज्यों तथा केंद्र शासित प्रदेशों को इसके लिए तीन सप्ताह का समय दिया है।

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की एक रपट के मुताबिक, वर्ष 2017-2022 तक पांच वर्षों में देश भर में पुलिस हिरासत में 669 लोगों की मौत हुई। यह स्थिति पुलिस हिरासत में लोगों की सुरक्षा को लेकर वास्तव में गंभीर चिंता पैदा करने वाली है। इस तरह के मामलों में शारीरिक प्रताड़ना, जरूरी चिकित्सा सेवाएं मुहैया न कराना या आत्महत्या जैसे कारण हो सकते हैं।

नियमानुसार किसी भी मामले की जांच के दौरान मानवाधिकारों का हनन नहीं होना चाहिए, लेकिन इस तरह की शिकायतें आए दिन सामने आती रही हैं। ऐसे में इस बात पर गौर करना जरूरी है कि हिरासत में मौत की घटनाओं पर अंकुश लगाने की जिम्मेदारी सिर्फ न्यायालय की नहीं है, बल्कि केंद्र और राज्यों सरकारों को भी इस पर तत्परता एवं गंभीरता दिखानी होगी। संबंधित कानूनों और न्यायालय के निर्देशों पर प्रभावी तरीके से अमल हो, इसका दायित्व सरकार का ही है। अगर हिरासत में किसी व्यक्ति की मौत होती है, तो उसके लिए जवाबदेही तय कर दोषी कर्मियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई सुनिश्चित की जानी चाहिए।