दिल्ली की पटियाला हाउस अदालत के परिसर में सोमवार को जो हुआ वह हमारे लोकतंत्र पर एक धब्बा है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार की पेशी के दौरान वहां पहुंचे विद्यार्थियों और शिक्षकों पर कुछ लोगों ने हमला कर दिया। हमलावर वकीलों की वर्दी में थे। उन्होंने संवाददाताओं को भी नहीं बख्शा। वहां गए जेएनयू के छात्रों और शिक्षकों के अलावा कई पत्रकारों को भी चोटें आई हैं। यह सब दिल्ली के एक बहुत सुरक्षित माने जाने वाले इलाके में और पुलिस की भरपूर मौजूदगी में हुआ। यही नहीं, भारतीय जनता पार्टी के एक विधायक ने खुद एक छात्र को बुरी तरह मारा-पीटा।

यह भी कहा कि उनके हाथ में बंदूक होती, तो वे गोली मार देते। वकीलों के भेष में आए हमलावरों ने अपनी पहचान छिपाने की कोशिश की है, पर उनकी पहचान करना मुश्किल नहीं है। इस मौके के बहुत सारे दृश्य कैमरों में दर्ज होंगे और पुलिस तत्परता दिखाए तो उन्हें पकड़ा भी जा सकता है। लेकिन इसकी उम्मीद बहुत कम है कि पुलिस इस मामले में सख्ती दिखाएगी। दिल्ली के पुलिस आयुक्त बीएस बस्सी की ओर से अभी तक निराशाजनक संकेत ही मिले हैं। बस्सी ने इसे झड़प करार देते हुए कहा है कि दोनों पक्षों की तरफ से कुछ अतिरेक हुआ है। ऐसा कहना सच्चाई पर परदा डालने और लीपापोती की कवायद के अलावा और कुछ नहीं है। लेकिन पुलिस का ऐसा रवैया कोई हैरानी की बात नहीं है जब खुद गृहमंत्री राजनाथ सिंह एक विशेष तरह का उत्साह दिखा रहे हों।

उन्होंने जेएनयू प्रकरण को लश्कर-ए-तैयबा के सरगना हाफिज सईद से जोड़ दिया। लेकिन गृहमंत्री ने इसके लिए सईद के जिस ट्वीट को आधार बनाया उसके सही होने के बारे में खुफिया एजेंसियों को भी शक है। पुलिस तब भी मूकदर्शक बनी रही थी जब कुछ दिन पहले रोहित वेमुला मामले में विरोध-प्रदर्शन कर रहे जेएनयू के छात्रों पर कुछ लोगों ने हमला बोला था। आखिर इस तरह पहचान छिपा कर या न पहचाने जाने का स्वांग करते हुए हमला करना क्या दर्शाता है? देश किस तरफ जा रहा है?

यह सही है कि पिछले दिनों जेएनयू में अफजल गुरु की तस्वीर लिए कुछ छात्रों ने जैसी नारेबाजी की वह बेहद आपत्तिजनक थी, आपराधिक भी। लेकिन कार्रवाई को आरोपियों तक सीमित रखने के बजाय सरकार ने जिस तरह पूरे जेएनयू समुदाय को घेरने की कोशिश की है, उसके उम्मीद से उलटे नतीजे भी हो सकते हैं। बल्कि इसके संकेत दिख भी रहे हैं। यह सवाल दिनोंदिन जोर पकड़ रहा है कि असहमति को ‘राष्ट्र-विरोधी गतिविधि’ करार देना हमारे लोकतंत्र को किस तरफ ले जाएगा? जो लोग आपातकाल की याद करते या दिलाते रहते हैं, वे खुद ऐसा क्यों कर रहे हैं!

अगर विपक्ष ने इसे अपनी एकुजटता का मुद््दा बना लिया, तो सरकार के लिए संसद चलाना भी मुश्किल हो सकता है। बजट सत्र को सुचारु रूप से चलाने के मकसद से प्रधानमंत्री की पहल पर बुलाई गई सर्वदलीय बैठक में जेएनयू की भी मसला उठा। जिस घटना की बाबत जेएनयू प्रशासन को तलब कर और कार्रवाई का निर्देश देकर भी सरकार निपट सकती थी, उसे लेकर केंद्रीय मंत्रियों के बयानों की झड़ी लग गई। यह अति उत्साह और अति सक्रियता क्यों? जब पीडीपी अफजल गुरु की फांसी को गलत बताती है, तब भाजपा इस तरह आसमान सिर पर नहीं उठाती। उलटे पीडीपी के नेतृत्व में वह सत्ता में साझीदार रह चुकी है और इस साझेदारी का अगला अध्याय शुरू करने की तैयारी चल रही है। क्या भारत संबंधी चिंता को भारतीय लोकतंत्र की चिंता से अलग करके देखा जाना चाहिए? क्या हमारे जनतंत्र के अच्छे दिन आए हैं?