जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद पर नकेल के दावों की कलई एक बार फिर खुल गई है। कश्मीर के अनंतनाग जिले के पहाड़ी इलाके में जिस तरह आतंकवादियों से मुठभेड़ में सेना के एक कर्नल, एक मेजर और कश्मीर पुलिस के एक उपाधीक्षक शहीद हो गए, उससे वहां आतंकवादियों की सक्रियता और उनके हौसले का अंदाजा लगाया जा सकता है।

इस घटना की जिम्मेदारी लश्कर-ए-तैयबा से जुड़े संगठन ‘द रेजिस्टेंस फ्रंट’ यानी टीआरएफ ने ली है। बताया जा रहा है कि पिछले महीने सेना के जवानों पर घात लगा कर हमला करने वाले भी ये ही आतंकी थे, जिसमें तीन जवान मारे गए थे। अनंतनाग की घटना के साथ ही रजौरी में भी सेना और दहशतगर्दों के बीच मुठभेड़ हुई, जिसमें सेना का एक जवान शहीद हो गया।

हालांकि घाटी में दहशतगर्दों के मारे जाने की घटनाएं भी आए दिन होती हैं, सेना का सघन तलाशी अभियान लगातार चलता है, घुसपैठ पर पैनी नजर रखने का दावा किया जाता है, फिर भी अगर सीमा पार से आकर आतंकी घाटी में अपनी साजिशों को अंजाम देने में कामयाब हो रहे हैं, तो इस मामले में नए सिरे से रणनीति बनाने की जरूरत फिर से रेखांकित होती है।

घाटी में दहशतगर्दी को नेस्तनाबूद करने के इरादे से पिछले करीब नौ वर्षों से सघन तलाशी अभियान चलाया जा रहा है, उसमें आतंकवादियों और उन्हें संरक्षण-प्रश्रय देने वालों के ठिकानों की पहचान की जाती रही है। दहशतगर्दी को वित्तपोषण करने वालों पर नकेल कसने के दावे किए जाते रहे हैं। सीमापार से घुसपैठ रोकने की हर कोशिश की जाती है।

जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म होने के बाद लंबे समय तक वहां संचार माध्यम ठप रहे, लोग घरों में बंद रहे, भारी संख्या में सेना तैनात की गई थी। इस तरह कहा जा रहा था कि वहां आतंकवाद की कमर टूट गई है। मगर कर्फ्यू हटते ही जिस तरह फिर से आतंकवादी सक्रिय हो गए और उन्होंने अपनी रणनीति बदल-बदल कर सेना और पुलिस पर हमले करने शुरू किए, उससे यही साबित हुआ कि घाटी में आतंक का सिलसिला रोकना सुरक्षाबलों के लिए बड़ी चुनौती है।

सबसे चिंताजनक बात यह कि अब फिर से आतंकी संगठन घाटी के युवाओं को हथियार उठाने को तैयार करने में कामयाब हो रहे हैं। वित्तपोषण और हथियारों की आपूर्ति पर रोक लगाने के सारे उपाय कमजोर नजर आने लगे हैं। अब हमलों में वहां जिस तरह के हथियार और गोला-बारूद इस्तेमाल हो रहे हैं, उससे साफ है कि दहशतगर्द सुरक्षाबलों की तमाम नाकेबंदियों को धता बताने में कामयाब हैं।

जिस तरह थोड़े-थोड़े दिनों पर इस तरह के आतंकी हमले होने लगे हैं और उसमें सुरक्षाबलों के लोग मारे जा रहे हैं, उसमें यह सवाल गाढ़ा होता गया है कि आखिर यह सिलसिला कब रुकेगा। छिपी बात नहीं है कि घाटी में आतंक की जड़ें पाकिस्तान से सींची जा रही हैं। मगर इस वक्त सबसे चिंता की बात स्थानीय लोगों की भूमिका को लेकर है।

घाटी में दहशतगर्दी खत्म करने का तरीका यही माना गया था कि स्थानीय लोगों को आतंकियों के खिलाफ खड़ा करना होगा। जब दहशतगर्दों को स्थानीय संरक्षण मिलना बंद हो जाएगा, तो उनकी जड़ें अपने आप सूख जाएंगी। मगर इस रणनीति पर काम आगे नहीं बढ़ पाया। व्यवस्था पर स्थानीय लोगों केभरोसे को और मजबूत करने की जरूरत महसूस की जा रही है।