इस वक्त जब अर्थव्यवस्था का रुख नीचे की तरफ है, लोगों की क्रयशक्ति न बढ़ने से बाजार में नरमी बनी हुई है, बैंकों के कारोबार में मंदी देखी जा रही है, तब बट्टे खाते का आकार बढ़ते जाना चिंता पैदा करता है। चालू वित्तवर्ष की पहली छमाही में सार्वजनिक बैंकों ने बयालीस हजार करोड़ रुपए का कर्ज बट्टे खाते में डाल दिया। यह जानकारी सरकार ने संसद में दी। कर्ज को बट्टे खाते में डालने का अर्थ है कि बैंकों ने मान लिया कि इस रकम की वसूली संभव नहीं है।

हालांकि सरकार का कहना है कि बैंक बट्टे खाते में डाली गई रकम की वसूली के प्रयास करते रहते हैं। पिछले वित्तवर्ष में एक लाख सत्तर हजार एक सौ सात करोड़ रुपए बट्टे खाते में डाले गए थे। पिछले कुछ वर्षों में बैंकों का एनपीए यानी गैरनिष्पादित आस्तियों का आकार बढ़ता गया है। इसे लेकर चिंता व्यक्त की जाती रही है। मगर इस दिशा में अभी तक कोई व्यावहारिक उपाय नहीं तलाशा जा सका है।

तेजी से बढ़ रहा कर्ज लेकर देश छोड़ने का चलन

यह चलन लगातार बढ़ता गया है कि बड़े व्यवसायी सार्वजनिक बैंकों से किसी उद्यम के लिए कर्ज लेते हैं और फिर कंपनी बंद कर दिवालिया हो जाते हैं। इस तरह बैंकों का कर्ज डूब जाता है। अनेक व्यवसायी बड़ी रकम लेकर देश छोड़ गए। इस तरह बैंकों के कारोबार पर बुरा असर पड़ता है। ऐसे में यह सवाल उठता रहा है कि कर्ज डूबने की समस्या से सार्वजनिक बैंकों को ही क्यों जूझना पड़ता है, जबकि निजी बैंकों के सामने यह समस्या इतनी बड़ी नजर नहीं आती।

सरकारी स्कूलों में मिल रहा जोखिम भरा भोजन, महाराष्ट्र में सैकड़ों छात्रों को अस्पताल में कराया गया भर्ती

फिर, जब सामान्य लोगों के घर, वाहन, निजी उपयोग आदि के लिए लिए गए कर्ज की उगाही में बैंक विफल साबित नहीं होते, वे उनसे कर्ज वसूली कर ही लेते हैं, तो फिर बड़े कर्जों की वसूली में उनसे कहां और कैसे चूक हो जाती है। जाहिर है, कर्ज देते समय जरूरी एहतियात नहीं बरती जाती। सार्वजनिक बैंकों का पैसा डूबने का अर्थ है, आम लोगों का पैसा डूबना। ऐसा नहीं माना जा सकता कि अगर सरकार सचमुच बट्टे खाते का आकार बढ़ने से रोकने को लेकर गंभीर हो, तो ऐसे कर्जों की वसूली कठिन होगी।