चुनावी बांड के रूप में अलग-अलग स्रोतों से धन लेने के मसले पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला स्वागतयोग्य है और लोकतंत्र बचाने के लिहाज से इसे उम्मीद की एक किरण के तौर पर देखा जा सकता है। यों चंदा लेने के नाम पर चल रही इस व्यवस्था पर तमाम सवाल उठते रहे और इस पर रोक लगाने की मांग भी होती रही। साथ ही इसकी संवैधानिकता के संदर्भ में भी स्थिति स्पष्ट किए जाने की जरूरत महसूस की जा रही थी। अब सर्वोच्च न्यायालय ने साफ तौर पर चुनावी बांड की व्यवस्था को असंवैधानिक बताते हुए रद्द कर दिया है। अदालत ने यह व्यवस्था दी है कि चुनावी बांड को अज्ञात रखना सूचना के अधिकार और अनुच्छेद 19(1)(ए) का उल्लंघन है और इसके सहारे राजनीतिक पार्टियों को आर्थिक मदद से उसके बदले में कुछ और प्रबंध करने की व्यवस्था को बढ़ावा मिल सकता है।
पांच जजों की पीठ ने सर्वसम्मति से दिया फैसला
पांच न्यायाधीशों की पीठ में सर्वसम्मति से अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भारतीय स्टेट बैंक चुनाव आयोग को जानकारी मुहैया कराएगा और आयोग इस जानकारी को इकतीस मार्च तक वेबसाइट पर प्रकाशित करेगा। दरअसल, एक विचित्र तर्क यह भी दिया जा रहा था कि चुनावी बांड की व्यवस्था के जरिए भ्रष्ट तरीके से जमा किए जाने वाले धन पर काबू पाया जा सकता है। जबकि इसमें जिस स्तर पर पारदर्शिता की अनदेखी की जाती रही, वह अपने आप में भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने का एक परोक्ष तरीका रहा है। भ्रष्टाचार के विरुद्ध अभियान चलाने वाली ज्यादातर पार्टियों को भी इससे कोई गुरेज नहीं था कि चंदे के रूप में धन का गोपनीय तरीके से लेनदेन हो।
योजना से आम लोग दलों के चंदे से अनजान रहते है
गौरतलब है कि इस योजना के तहत आम लोगों को यह पता नहीं चल पाता था कि किसने कितने रुपए के बांड खरीदे और किस पार्टी को दिए। हालांकि संबंधित बैंक के पास इसका पूरा ब्योरा होता था कि कितने बांड किसने खरीदा और किस पार्टी को दान में दिया। ये सवाल भी उठे कि चुनावी बांड के जरिए चंदा देने वाले की पहचान चूंकि गुप्त रखी गई है, इसलिए इससे भ्रष्ट तौर-तरीकों से हासिल धन को बढ़ावा मिल सकता है। इसकी एक आलोचना यह भी थी कि यह योजना बड़े कारपोरेट घरानों को उनकी पहचान बताए बिना पैसे दान करने में मदद के लिए बनाई गई थी।
विडंबना यह है कि भारतीय राजनीति में चुनावी पारदर्शिता की मांग तो अक्सर की जाती है, मगर इसके लिए जरूरी कारकों को सुनिश्चित करने को लेकर गंभीरता नहीं दिखती है। हैरानी की बात यह भी रही कि इस क्रम में सूचना के अधिकार कानून को भी दरकिनार कर दिया गया था। मगर सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से चुनावी बांड की व्यवस्था को सूचना के अधिकार कानून का भी उल्लंघन माना।
इस बात की आशंका निराधार नहीं रही है कि बड़ी कारपोरेट कंपनियां किसी पार्टी को मदद के तौर पर धन देने के लिए किस तरह की अघोषित सुविधाओं की मांग कर सकती हैं और ऐसे में चुनावी बांड के जरिए धन मुहैया कराने का नियम किसके लिए सबसे ज्यादा फायदेमंद हो सकता है। इसका सीधा असर लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर पड़ सकता है। अब लोकसभा चुनाव के पहले पारदर्शिता सुनिश्चित करने और भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिहाज से देखें तो सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को ऐतिहासिक महत्त्व का और याद रखने लायक कहा जा सकता है।