बिहार में सरकारी नौकरियों में महिलाओं को 35 फीसद आरक्षण देने का निर्णय महत्त्वपूर्ण कदम था। मगर अब इस प्रावधान को राज्य की मूल निवासियों तक ही सीमित कर देने का फैसला किया गया है। राज्य के स्थायी नागरिकों के हितों के मद्देनजर यह निस्संदेह बड़ी पहल है। खासतौर से तब जबकि कुछ महीने बाद ही विधानसभा चुनाव होने हैं।
कहा जा सकता है कि राज्य सरकार के अगुआ ने नौकरियों में महिलाओं के लिए आरक्षण की नई व्यवस्था के जरिए राजनीतिक संदेश दिया है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पहले भी साइकिल बांटने से लेकर नौकरियां देने तक में महिला वोट बैंक का विशेष ध्यान रखते रहे हैं। शराबबंदी का फैसला भी उनकी दूरदर्शी नीति का ही हिस्सा था। इससे महिलाओं के बीच उनकी सियासी जमीन मजबूत हुई।
हालांकि, अब महिला आरक्षण को एक दायरे में सीमित करने का उनका दांव कितना कारगर होगा, इस बारे में अभी कुछ कहा नहीं जा सकता। सवाल है कि नीतीश कुमार की इस पहल से क्या राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस के सत्ता में आने के दावे की धार कमजोर होगी? गौरतलब है कि विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव ने भी कहा है कि उनकी सरकार बनी, तो वे अधिवास नीति लागू करेंगे।
दरअसल, बिहार में अधिवास नीति लागू करने की मांग जोर पकड़ रही है। कुछ दिनों पहले युवाओं ने भी सड़क पर उतर कर यह मांग उठाई थी। वहीं सरकार की इस बात के लिए भी आलोचना हो रही थी कि उसने शिक्षकों की भर्ती के दौरान अधिवास नीति लागू नहीं की, जिस कारण अन्य राज्यों से आए उम्मीदवारों को फायदा मिला।
माना जा रहा है कि इस आलोचना की काट के लिए महिला आरक्षण पर नया दांव खेला गया। हालांकि सरकार के ताजा निर्णय से राज्य से बाहर की महिलाओं को नौकरियों में आरक्षण नहीं मिल पाएगा। मगर जब राजनीति में नफा-नुकसान की बात आती है, तो वाजिब तर्क को भी नजरअंदाज कर दिया जाता है। अगर सभी राज्य ऐसा करेंगे, तो योग्य अभ्यर्थियों के लिए अवसर कम होते जाएंगे।