पिछले कुछ वर्षों से देश के राजनीतिक दलों के लिए जैसे-जैसे वास्तविक मुद्दों पर आम जनता का समर्थन हासिल करना मुश्किल होता गया है, लोगों के सामने कोई सुविधा या सामान मुफ्त देने का वादा करके उन्हें अपनी ओर आकर्षित किया जाने लगा है। वोट हासिल करने की मंशा से स्कूटी, टीवी या लैपटाप या फिर कुछ राशि देना हो या फिर कोई अन्य सामान, मकसद यह होता है कि लोगों को मुफ्त मुहैया कराने का वादा किया जाए, ताकि वे मुद्दा आधारित राय बनाने की ओर ध्यान न दें।
यही वजह है कि लगभग हर चुनाव के पहले जनता को कोई सुविधा मुफ्त दिलाने के लिए राजनीतिक दलों के बीच एक तरह से होड़ लग जाती है। हालांकि इस तरह के चलन ने लोकतांत्रिक मूल्यों को गहरे स्तर पर प्रभावित किया है और इससे लोभ-आधारित मतदान की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलने के खतरे पैदा हुए हैं। यों इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट भी कह चुका है कि सरकारी धन का उपयोग बुनियादी ढांचे को मजबूत बनाने और विकास कार्यों में होना चाहिए, न कि चुनावों में वोट बटोरने की मंशा से मुफ्त की सौगातों पर खर्च करने के लिए।
लालच देकर बुनियादी मुद्दों पर पर्दा डालने की प्रथा
विडंबना यह है कि एक ओर सरकारें जन-कल्याण कार्यक्रमों के लिए धन जारी करने को लेकर कई तरह के बहाने बनाती रहती हैं, दूसरी ओर सत्ता में वापसी या उसे हासिल करने के लिए व्यापक पैमाने पर मुफ्त की कोई सुविधा मुहैया कराने के वादे किए जाते हैं। एक तरह से यह जनता को दिया जाने वाला लालच है, जिसके जरिए बुनियादी सुविधाओं और अन्य जरूरी मुद्दों पर पर्दा डाला जाता है। हाल के वर्षों में चुनावों में जीत हासिल करने के लिए अमूमन हर पार्टी ने इस मुफ्त के औजार का इस्तेमाल किया है और बिहार में नीतीश कुमार की सरकार अब इसका अपवाद नहीं है।
गौरतलब है कि गुरुवार को बिहार सरकार ने आम घरेलू उपभोक्ताओं को एक सौ पच्चीस यूनिट तक मुफ्त बिजली देने की घोषणा की है। यह फैसला अगले महीने से लागू हो जाएगा। इससे पहले नीतीश कुमार ने सामाजिक सुरक्षा के तहत मिलने वाली पेंशन की राशि में भी बढ़ोतरी कर दी थी। जाहिर है, बिहार में इस तरह की घोषणाओं की पृष्ठभूमि में अगले कुछ महीने के भीतर होने वाले विधानसभा चुनाव हैं। हालांकि बिजली मुफ्त मुहैया कराने के मसले पर नीतीश कुमार की राय अलग थी, लेकिन ऐसा लगता है कि अब उन्हें भी जनता के सामने मुफ्त की रेवड़ियों का सपना दिखाने में कोई हिचक नहीं हो रही।
आखिर क्या कारण है कि बिहार सहित देश भर में जहां भी इस तरह के मुफ्त की सौगात जनता को देने के वादे किए जाते हैं, उनका समय हर बार चुनाव से पहले का वक्त होता है! सड़क, शिक्षा-व्यवस्था, रोजगार आदि के मसले पर खर्च का सवाल आते ही धन की कमी का रोना वाली सरकारों को अपने अधिकार के क्षेत्र के सभी लोगों के लिए किसी सुविधा को मुफ्त करने का वादा करने में कोई हिचक नहीं होती। जबकि अगर न्यायपूर्ण आय और उचित खर्च के स्तर को बनाए रखा जाए, रोजगार के सवाल पर ईमानदार इच्छाशक्ति से काम किया जाए, तो लोगों की क्रयशक्ति को इतना मजबूत जरूर बनाया जा सकता है कि उन्हें मुफ्त सौगात की जरूरत नहीं पड़े।
अफसोस यह भी है कि लोगों की आर्थिक स्थिति में सुधार करने के बजाय सरकारें उनमें परनिर्भरता की आदत डालने में ज्यादा रुचि दिखा रही हैं। इस क्रम में जनकल्याण की जिम्मेदारी के तहत किए जाने वाले कार्यों और मुफ्त की रेवड़ियों में फर्क मिटाने की कोशिश की जा रही है।