पांच विधानसभाओं के चुनाव की तारीखें घोषित हो गई हैं। छत्तीसगढ़ को छोड़ कर बाकी सभी राज्यों में एक ही चरण में मतदान कराए जाएंगे। हालांकि दो राज्यों में मतदान की तारीखें अलग-अलग हैं। सात नवंबर को पहला मतदान होगा। उस दिन मिजोरम और छत्तीसगढ़ में मतदान होंगे। सत्रह नवंबर को छत्तीसगढ़ के दूसरे चरण के लिए और मध्यप्रदेश में मतदान होंगे। उसके एक-एक हफ्ते के अंतर पर राजस्थान और तेलंगाना में मतदान होंगे। नतीजे तीन दिसंबर को आएंगे। इस तरह कुल छब्बीस दिनों में चुनाव संपन्न होंगे।
राजस्थान, एमपी, छत्तीसगढ़ में बीजेपी-कांग्रेस के बीच कांटे की टक्कर
राजनीतिक दल इसके लिए पहले से तैयारी में जुट गए थे। तमाम बड़े नेताओं, मंत्रियों आदि की रैलियां महीना भर पहले से होने लगी थीं। जाहिर है, मतदान की तारीखें घोषित होने के बाद अब सरगर्मी और बढ़ जाएगी। राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा और कांग्रेस के बीच कांटे की टक्कर बताई जा रही है। विपक्षी दल एकजुट हैं। इस तरह इन चुनावों में सरगर्मी कुछ अधिक रहने की संभावना है। हर राजनीतिक दल के बड़े नेता चुनाव प्रचार में उतरेंगे। इसलिए भी सुरक्षा कारणों से निर्वाचन आयोग ने मतदान को इतनी लंबी अवधि में फैलाने का फैसला किया होगा।
मशीनों के इस्तेमाल के बाद भी समय कम नहीं हुआ
छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित इलाकों में हमेशा अतिरिक्त सुरक्षा की जरूरत रहती है। कोशिश की जाती है कि उन इलाकों में लोग अधिक से अधिक संख्या में घरों से निकलें और अपने मताधिकार का उपयोग करें। इसलिए भी वहां दो चरण में मतदान का फैसला किया गया।
हालांकि जबसे मशीनों से मतदान कराए जाने लगे हैं, तबसे अपेक्षा की जाती है कि मतदान और नतीजों के बीच की अवधि कम से कम रहे। कम से कम चरणों में मतदान कराए जाएं। मगर मशीनों के उपयोग के बाद भी निर्वाचन आयोग इस अपेक्षा पर खरा नहीं उतर पाता।
पिछले कई चुनावों से देखा जा रहा है कि जब भी कई राज्यों के चुनाव एक साथ कराए जाते हैं, तो मतदान की तारीखों में लंबा अंतर रखा जाता है। कई बार मतगणना तक महीने भर से अधिक का समय लग जाता है। इससे कई तरह की उलझनें पैदा होती हैं। कई चुनाव विशेषज्ञ इसे उचित नहीं मानते। पांच राज्यों के चुनाव अधिकतम दो दिनों में बांटे जा सकते थे, जिससे खर्च कम बैठता और राजकीय अमले को लंबे समय तक नाहक अफरातफरी के माहौल में नहीं फंसे रहना पड़ता। जहां मतदान सबसे अंत में होगा, वहां सबसे लंबे समय तक चुनाव प्रचार चलेगा और स्वाभाविक ही वहां के प्रशासनिक कामकाज में बाधा आएगी।
इस तरह चुनाव की तारीखों को लंबे समय तक फैलाने के पीछे अक्सर निर्वाचन आयोग का तर्क होता है कि सुरक्षा कारणों की वजह से उसे ऐसा फैसला करना पड़ा। मगर जब लोकसभा चुनाव भी लगभग इतने समय में संपन्न करा लिए जाते हैं, तो पांच राज्यों के चुनाव में भला सुरक्षाबलों की तैनाती में ऐसी क्या अड़चन आ सकती है।
चुनाव के लंबे समय तक फैले होने से विपक्षी दलों को निर्वाचन आयोग की निष्पक्षता पर सवाल उठाने का मौका मिल जाता है। फिर, जहां पहले चरण में चुनाव होगा वहां की मतपेटियों की सुरक्षा के लिए लंबे समय तक पहरा बिठा कर रखना पड़ेगा। एक राज्य के मतदाताओं के रुझान को दर्शा कर दूसरे राज्य के मतदाताओं को प्रभावित करने की कोशिशें तो होंगी ही। निर्वाचन आयोग की कुशलता इस बात से भी आंकी जाती है कि वह कितने कम समय में चुनाव संपन्न कराता है।