आम आदमी पार्टी के संयोजक और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा है कि अगर प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव पार्टी में वापस आते हैं, तो उनका स्वागत किया जाएगा। वे हर किसी को साथ लेकर चलना चाहते हैं। जबकि प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव ने ऐसी किसी संभावना से इनकार किया है। केजरीवाल को इस वक्त ऐसा क्यों लग रहा है कि पार्टी से अलग हुए नेताओं को फिर से जोड़ा जाना चाहिए! क्या उन्हें अपनी गलतियों का अहसास हो चुका है। या वे यह संकेत देना चाहते हैं कि अलग हुए नेता चाहें तो वापस आ सकते हैं!

केजरीवाल ने बिछड़े नेताओं के वापस आने की कामना एक टेलीविजन चैनल के माध्यम से व्यक्त की, पर उनके रुख से ऐसा कहीं जाहिर नहीं होता कि वे प्रशांत भूषण, योगेंद्र यादव और दूसरे वरिष्ठ नेताओं को पार्टी में जगह देना चाहते हैं। सवाल केवल इन नेताओं के वापस आने का नहीं, पार्टी को उसके सिद्धांतों के अनुरूप चलाने का है। मतभेद इसी बात को लेकर उभरे थे कि अरविंद केजरीवाल ने मूल सिद्धांतों को दरकिनार करते हुए पार्टी को अपने तरीके से चलाने की कोशिश की थी।

आंतरिक लोकपाल तक की बात सुनना उन्हें गवारा नहीं हुआ। दिल्ली विधानसभा चुनाव में टिकट बंटवारे के समय जिन नेताओं के आचरण पर सवाल उठे थे, उन पर ध्यान देना जरूरी नहीं समझा। कायदे से मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्हें संयोजक पद की जिम्मेदारी किसी और को सौंप देनी चाहिए थी, मगर वह उन्हें स्वीकार नहीं हुआ। ऐसा नहीं लगता कि इन पहलुओं पर उन्होंने पलट कर विचार करने की जरूरत समझी है।

प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव सहित पार्टी के कई वरिष्ठ नेता खुद पार्टी छोड़ कर नहीं गए थे। उन्होंने पार्टी के आदर्शों का हवाला देते हुए अरविंद केजरीवाल से मिल कर बातचीत करने की कोशिश भी की थी। मगर उनकी नहीं सुनी गई। पार्टी की राष्ट्रीय परिषद में उन्हें निष्कासित करने का फैसला किया गया था। तब बैठक में उन नेताओं के साथ बदसलूकी भी की गई थी। वह टीस उनके मन से अभी गई नहीं है। फिर अरविंद केजरीवाल अपने आचरण से ऐसा कोई यकीन नहीं दिला पा रहे कि जिन मुद्दों पर पार्टी के भीतर फूट हुई थी, उन्हें वे सुलझाने का प्रयास करेंगे।

सत्ता में आने के बाद अरविंद केजरीवाल को कई मौकों पर उन्हीं सवालों से रूबरू होना पड़ा है, जो पार्टी में रहते प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव आदि नेताओं ने उठाए थे। आप के कई विधायक दागी साबित हो चुके हैं। भ्रष्टाचार से लड़ने की उनकी हुंकार भी मद्धिम पड़ गई है। भले केजरीवाल दावा करते हों कि उनके जनाधार पर कोई असर नहीं पड़ा है, पर हकीकत यह है कि पार्टी के आदर्शों की बलि चढ़ाने से बहुत सारे लोगों का उन पर से विश्वास डिगा है।

अगर सचमुच केजरीवाल को लगता है कि पार्टी से अलग हुए नेताओं को जोड़ कर एक बार फिर नई ताकत हासिल की जानी चाहिए, तो उन्हें खुद इसके लिए पहल करनी होगी। अपना अड़ियल रवैया त्याग कर खुद के बजाय पार्टी हितों को सर्वोपरि साबित करना होगा। अब भी समय नहीं बीता है, अगर केजरीवाल पार्टी में लोकतांत्रिक व्यवस्था बहाल करने का संकल्प लें, तो खोई प्रतिष्ठा और खोए हुए दोस्तों को वापस पाना उनके लिए मुश्किल नहीं होगा।

 

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