दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को आखिरकार कथित आबकारी नीति घोटाले में जमानत मिल गई। इसी मामले में प्रवर्तन निदेशालय की गिरफ्तारी पर उन्हें पहले ही जमानत मिल गई थी। अब सीबीआइ की गिरफ्त से भी उन्हें मुक्ति मिल गई है। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें कुछ शर्तों के साथ जमानत दी है, पर इस मामले में सुनवाई करते हुए अदालत ने जो सवाल उठाए, वे जांच एजंसियों के कार्य व्यवहार पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत रेखांकित करते हैं। कथित शराब घोटाले से जुड़े मामले में गिरफ्तार किए गए अब लगभग सभी आरोपियों को जमानत मिल चुकी है। मगर इस पूरे प्रकरण से यही जाहिर हुआ है कि इसमें भ्रष्टाचार निवारण की नीयत कम और राजनीतिक मंशा अधिक काम कर रही थी।
जांच एजेंसियां इस केस को लंबा खींचती रहती हैं
सर्वोच्च न्यायालय बार-बार कह रहा था कि जमानत अधिकार है और जेल विशेष परिस्थितियों में ही भेजा जाना चाहिए। मगर निचली अदालत और उच्च न्यायालय लगातार केजरीवाल और दूसरे आरोपियों की जमानत याचिकाएं रद्द करती रहीं। प्रवर्तन निदेशालय और सीबीआइ हर बार कुछ नया नुक्ता निकाल कर इस मामले को लटकाए रखने का प्रयास करती रही। आखिरकार सर्वोच्च न्यायालय को यह तक कहना पड़ा कि अगर जांच एजंसियां इस तरह बेवजह जमानत के मामले को लंबा खींचती रहेंगी, तो मामले की सुनवाई शुरू ही नहीं हो सकेगी।
आम आदमी पार्टी शुरू से आरोप लगाती रही है कि शराब घोटाला मनगढ़ंत मामला है, वह केवल केजरीवाल सरकार को अस्थिर करने और उसके कामकाज में बाधा डालने की नीयत से रचा गया है। मगर उपराज्यपाल और भाजपा इसे बड़ा भ्रष्टाचार बताते रहे। इसे लेकर लंबे समय से सियासी रस्साकशी चलती रही है। मगर इसकी असलियत तो तभी पता चल सकेगी, जब अदालत में इस पर सुनवाई पूरी होगी। अभी तक तो केवल जमानत के लिए संघर्ष चल रहा था। मनीष सिसोदिया करीब डेढ़ वर्ष जेल में रहे। अरविंद केजरीवाल, संजय सिंह और के कविता करीब पांच-पांच महीने सलाखों के पीछे रहे। बार-बार यह सवाल उठता रहा कि उन्हें जमानत क्यों नहीं मिलनी चाहिए। मगर दलील यह दी जाती थी कि धनशोधन मामले में जमानत के खिलाफ कड़े प्रावधान हैं।
हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि धनशोधन कानून का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए। किसी को किसी गवाह के कबूलनामे के आधार पर गिरफ्तार नहीं किया जा सकता। खासकर अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी को इसी आधार पर चुनौती दी गई थी कि उन्हें एक ऐसे आरोपी के कबूलनामे के आधार पर गिरफ्तार किया गया, जो सरकारी गवाह बन गया।
हालांकि जमानत मिल जाने से किसी की बेगुनाही साबित नहीं हो जाती, पर कथित दिल्ली शराब घोटाला मामले में जिस ढंग से गिरफ्तारियां हुर्इं और फिर उन लोगों की जमानत को रोकने का प्रयास होता रहा, उससे धनशोधन निवारण कानून के दुरुपयोग का गंभीर मामला उठा। बार-बार सर्वोच्च न्यायालय ने जांच एजंसियों को फटकार लगाई। इससे यह भी संदेश गया कि धनशोधन निवारण कानून पर नए सिरे से विचार करने की जरूरत है। जांच एजंसियों की जवाबदेही भी तय होनी चाहिए। भ्रष्टाचार निवारण के नाम पर जांच एजंसियां लोगों को गिरफ्तार तो कर लेती हैं, पर उनमें दोष सिद्धि न हो पाने के कारण उनका मकसद ही प्रश्नांकित होने लगता है। पहले जांच एजंसियों की निष्पक्षता सुनिश्चित होगी, तभी भ्रष्टाचार पर अंकुश लगने का भरोसा जगेगा।