प्रौद्योगिकी का एक अलिखित नियम यह है कि वह जिस जगह सबसे कम लागत और सर्वश्रेष्ठ दक्षता के साथ तैयार होती है, पूरी दुनिया अपनाने के लिए उसी तरफ दौड़ पड़ती है। जैसे, एक दौर था जब दुनिया में आइटी प्रतिभाओं की बात होती थी, तो हर कोई भारतीय मेधा का सम्मान करता था। यह रुतबा आज तक कायम है। इसी का असर है कि अमेरिकी सत्ता पर दोबारा काबिज डोनाल्ड ट्रंप ने रोजगार में आप्रवासियों के योगदान में कटौती करने के इरादे से एच1-बी वीजा में तब्दीली के संकेत दिए, तो अमेरिकी कंपनियां ही विरोध करने लगीं। इसलिए कि आइटी तकनीक और इंजीनियरिंग के मामले में आज भी अमेरिका-यूरोप में भारतीयों की तूती बोलती है। एच1-बी वीजा पर पाबंदियां लगती हैं, तो अमेरिकी कंपनियां मेहनती भारतीय युवाओं से वंचित हो सकती हैं।

कुछ ऐसी ही स्थिति इन दिनों कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआइ) के क्षेत्र में दिखाई दे रही है। नवंबर 2022 में जबसे अमेरिकी कंपनी ‘ओपनएआइ’ ने ‘चैटजीपीटी’ के नाम से नया ‘टूल’ विकसित किया, तो माना जाने लगा कि दुनिया के किसी और देश को इसका मुकाबला करने या इसकी बराबरी करने में ही कई दशक लग सकते हैं, लेकिन यह मिथक करीब सवा दो साल में ही टूट गया। एक चीनी कंपनी ने डीपसीक आर-1 बना कर न सिर्फ चैटजीपीटी के सामने नई चुनौती पेश कर दी, बल्कि लागत और इस्तेमाल की बेहद कीमत के आधार पर यह साबित कर दिया कि कोई जरूरी नहीं कि विज्ञान-तकनीक के सारे आविष्कार अब अमेरिकी या यूरोपीय जमीन पर हों। इसमें चीन और भारत जैसे देश भी नया करिश्मा कर सकते हैं।

कृत्रिम बुद्धिमत्ता के क्षेत्र में नया ढांचा बनाने के लिए देश के बजट में प्रावधान किए गए हैं, उससे लगता है कि भारत में भी इसकी रफ्तार बढ़ेगी। वित्तमंत्री ने देश में एआइ की शिक्षा पर खास ध्यान देने की योजना के तहत ‘एआइ सेंटर आफ एक्सीलेंस’ का प्रस्ताव दिया है। इसके लिए आबंटित 500 करोड़ रुपए, 2023-24 के बजट में आबंटित 255 करोड़ रुपए से करीब दोगुना है। यह कदम देश को एआइ शिक्षा में अग्रणी शक्ति बनाने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण पहल माना जा सकता है। लेकिन चर्चा चीनी एआइ डीपसीक आर-1 की है। इसने चैटजीपीटी को इस मामले में पछाड़ दिया है कि यह उससे दहाई लागत में तैयार हुआ है और उपयोग के लिए तकरीबन मुफ्त उपलब्ध है।

चीन ने हाल के वर्षों में नई पीढ़ी की प्रौद्योगिकी से संबंधित वैज्ञानिक और इंजीनियर तैयार करने में जो तेजी दिखाई है, उससे इस देश के आगे निकल जाने की संभावना बन रही है। यह आकलन अब ‘डीपसीक आर-1’ और चीनी कारोबारी जैकमा की कंपनी- अलीबाबा की ओर से तैयार किए गए ‘एआइ चैटबाट क्वेन 2.5 मैक्स’ के साथ बिल्कुल सही साबित हो गया है। यही नहीं, इसी अध्ययन में कृत्रिम बुद्धिमत्ता के क्षेत्र में भारत के प्रयासों को भी रेखांकित किया गया था। इसमें लिखा गया था कि चीन की तरह ही भारत में भी अब एआइ से जुड़े शोधकर्ताओं को अच्छा माहौल मिल रहा है और वे देश में ही रह कर तकनीक-प्रौद्योगिकी की इस नई जमीन पर नई इबारत लिखने की कोशिश कर रहे हैं।

एक बड़ा प्रश्न है कि आखिर यह जरूरी क्यों है कि भारत-चीन जैसे देश कृत्रिम बुद्धिमत्ता से लेकर अंतरिक्ष के उन अभियानों पर अधिक संसाधन खर्च करें, जिनमें अमेरिका-यूरोप या कहें कि पश्चिमी देश काफी तरक्की कर चुके हैं। खुले वैश्विक कारोबार का कायदा तो यह कहता है कि अगर कोई चीज दुनिया के किसी बाजार में सहजता से उपलब्ध है, तो उसे पैदा करने में संसाधन और ऊर्जा झोंकने की कोई जरूरत नहीं है, बल्कि बाजार में उपलब्ध सामान को अपनी जरूरत के हिसाब से खरीद लेना चाहिए। दाल, अनाज, कपड़ों, दवाओं से लेकर तमाम चीजों को लेकर यही नियम अपनाया जाता है, लेकिन तकनीक और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत-चीन की सक्रियता और तेजी का आखिर कोई तो मतलब होगा। यह बेवजह तो नहीं होगा कि ये दोनों मुल्क अंतरिक्ष में चांद-मंगल की दौड़ लगा रहे हैं, तो जमीन पर एआइ से लेकर सेमीकंडक्टर की फैक्टरी बनने पर आमादा हैं।

जिस तरह भारत-चीन की सरकारों ने इधर अंतरिक्ष अभियानों के संचालन और सेमीकंडक्टर के उत्पादन और फिर कृत्रिम बुद्धिमत्ता के क्षेत्र में नवाचारों को प्रश्रय दिया है, उससे तस्वीर बदलने लगी है। इसी का एक नतीजा डीपसीक आर-1 के रूप में निकला है, जिसने अमेरिकी प्रौद्योगिकी कंपनियों की नींद उड़ा दी है। अभी तक माना जा रहा था कि अमेरिकी कंपनियों- ओपनएआइ, गूगल और फेसबुक आदि ने चैटजीपीटी, जेमिनी, को-पायलट और मेटा एआइ के रूप में जो ‘एआइ टूल’ बनाए हैं, उन्हें कोई उल्लेखनीय चुनौती दुनिया के किसी कोने से नहीं मिलेगी, लेकिन डीपसीक आर-1 ने भरोसा जगा दिया है कि इस क्षेत्र में अमेरिकी-यूरोपीय कंपनियों के एकछत्र साम्राज्य में सेंध लगाई जा सकती है और एक विकासशील देश भी अपने मामूली संसाधनों के बल पर समान या ज्यादा क्षमता हासिल कर सकता है।

डीपसीक कैसे गरीब और विकासशील देशों के मामले में एक मिसाल बन सकता है, इसकी गवाही अमेरिका में इसके पहुंचने की खबरों के साथ ही देखने को मिली है। जब पता चला कि डीपसीक लागत और उपयोग में चैटजीपीटी से कई गुना सस्ता और मुफ्त है, तो अमेरिकी शेयर बाजारों में हड़कंप मच गया। इसकी असल वजह यही है कि अमेरिकी कंपनियों को अब एआइ में अपना एकाधिकार खत्म होता दिख रहा है। इससे यह भी साबित हुआ कि तकनीक के आविष्कार और उसे आजमाने की जो लागत तथा कीमत अमेरिकी कंपनियां बताती रही हैं, वे बढ़ा-चढ़ा कर बताई गई हैं।

बताया गया कि ओपनएआइ ने चैटजीपीटी को जिस लागत में बनाया था, डीपसीक के निर्माण की लागत उससे दस गुना कम आई है। इससे साबित हुआ है कि कृत्रिम बुद्धिमत्ता वाले वही काम सस्ते में या फिर मुफ्त में हो सकते हैं, जिनके लिए अमेरिकी कंपनियां दस गुना ज्यादा पैसा लेती रही हैं। हालांकि डीपसीक एक चीनी आविष्कार है और टिकटाक और पबजी से लेकर चीनी उपकरणों के जरिए जिस तरह डेटा चोरी के आरोप चीनी कंपनियों पर लगते रहे हैं, उन्हें देखते हुए डीपसीक को लेकर सतर्कता बरतने की जरूरत बनती है।

भारत को इस संबंध में सावधानी बरतने के साथ-साथ यह कोशिश भी करनी होगी कि ऐसे तकनीकी और प्रौद्योगिकी आधारित आविष्कारों के भारतीय संस्करण जितनी जल्दी हो सकें, तैयार किए जाएं, ताकि उपभोक्ताओं की निजी जानकारियां देश से बाहर जाने से रुक सकें। ऐसा करना इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि ग्राहकों की निजी जानकारियों की चोरी से दुनिया भर से साइबर जालसाजी की जाती रही है। एआइ से बराबरी करने में अभी कोई देरी इससे जुड़े ढांचे को लेकर हो सकती है।