इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि एक समय भ्रष्टाचार के खिलाफ हुए आंदोलन की बुनियाद पर खड़ी किसी पार्टी अब खुद इस मुद्दे पर दोहरा मानदंड रखने का आरोपों में घिर रही है और उसके उसके साथी साथ छोड़ रहे हैं। देश में पिछले कुछ समय से पार्टी बदलने या छोड़ने का जो चलन देखा जा रहा है, आम आदमी पार्टी यानी आप के राजकुमार आनंद के इस्तीफे को भी इसी के हिस्से के तौर पर देखा जा सकता है। मगर अपने इस्तीफे के क्रम में उन्होंने जिन सवालों पर पार्टी और उसके नेता अरविंद केजरीवाल को कठघरे में खड़ा किया है, उसकी अनदेखी करना मुश्किल है।
उनका आरोप है कि आप में दलितों को उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिल पा रहा है और तेरह राज्यसभा सांसदों में से एक भी दलित नेता को जगह नहीं देना एक तरह से पार्टी में इस तबके का अपमान है। इसके अलावा, जो पार्टी भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन की वजह से पैदा हुई थी, वह आज भ्रष्टाचार के दलदल में फंस चुकी है और उसके पास कोई नैतिक बल नहीं रह गया है।
जाहिर है, कई आरोपों से घिरे नेताओं और यहां तक कि खुद मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के जेल में होने की वजह से जिस समय आप के सामने चुनौतियां गहरा रही हैं, उसमें इकलौते दलित नेता के साथ छोड़ने का नकारात्मक संदेश गया है और इससे पार्टी की मुश्किलें बढ़ी हैं। संभव है कि आप की ओर से इसे केंद्रीय एजंसियों के बेजा इस्तेमाल का नतीजा बताया जाए, मगर राजकुमार आनंद ने पार्टी छोड़ने की वजह के तौर पर जो मुद्दे उठाए हैं, उसके अपने आधार हैं।
शराब घोटाले में पार्टी के शीर्ष नेताओं की गिरफ्तारी के मसले पर पार्टी अब तक आम जनता को अपने पक्ष या दलीलों से संतुष्ट नहीं कर पाई है। बल्कि अपने नेताओं पर लगे आरोपों के बाद पार्टी का जो रुख रहा, उससे यह सवाल उठा कि भ्रष्टाचार में घिरने के बाद लड़ने के लिए क्या पार्टी का इस्तेमाल किया जाना उचित है!
खासतौर पर तब जब पार्टी के लिए यही मुद्दा देश की राजनीति में अपनी जगह बनाने का सबसे मुख्य आधार रहा! इस लिहाज से देखें तो पिछले कुछ समय से भ्रष्टाचार को लेकर राजनीतिक स्तर पर आप और उसके नेताओं का जो रुख सामने आया है, वह कथनी और करनी के फर्क को ही दर्शाता है। सही है कि राजकुमार आनंद ने इस्तीफा देने के लिए जो समय चुना, उस पर सवाल उठ रहे हैं और उन पर प्रवर्तन निदेशालय या ईडी के छापे से जुड़े संदर्भ भी सामने आ रहे हैं। मगर भ्रष्टाचार के अलावा उन्होंने दलितों के प्रति आम आदमी पार्टी के रुख पर जो सवाल उठाए हैं, उसकी अनदेखी मुश्किल है।
इससे पहले पार्टी से जुड़े दलित पृष्ठभूमि के ही एक अन्य नेता राजेंद्रपाल गौतम को इसलिए अपने पद से हटना पड़ा था कि वे एक बौद्ध धम्म दीक्षा समारोह में शामिल हुए थे। शायद यही वजह है कि अपने इस्तीफे में राजकुमार आनंद ने पार्टी के दलित विरोधी होने का जो आरोप लगाया है, उसे अब एक मुद्दे के तौर पर देखा जा रहा है।
आम आदमी पार्टी के प्रभाव वाले मुख्य राज्यों यानी पंजाब और दिल्ली के चुनावों में दलित समुदाय का समर्थन कुछ जगहों पर जीत-हार का फैसला तय करने में बड़ी भूमिका निभाता है। इसलिए इस मुद्दे की अहमियत समझी जा सकती है। ऐसे में भ्रष्टाचार पर दोहरा रवैया अपनाने के साथ-साथ पार्टी पर दलितों की उपेक्षा करने का आरोप अगर राजनीतिक मुद्दा बनता है, तो इसका असर आप के भविष्य की दिशा भी तय करने में अहम साबित हो सकता है।