कुमकुम सिन्हा
आज के युवा वर्ग में परिवार, समाज और देश के प्रति एक अजीब तरह की उदासीनता देखी जाने लगी है। उन्हें देखकर कभी-कभी लगता है जैसे हमारा ही जमाना सही था। कम संसाधन थे तो क्या हुआ, जीवन जीने की अद्भुत कला थी हमारे अंदर। संयुक्त परिवार के अपने सुख थे। सब एक-दूसरे की आंखों के सामने रहते थे, फिर भी खुश। खेलने के लिए खुले मैदान थे, जहां दोस्तों का जमावड़ा हुआ करता था। पर्व-त्योहार में एक गजब की रौनक दिखाई देती थी। साथ-साथ रहने के कारण एक-दूसरे की अच्छी समझ और परख थी। किसी समस्या के आने पर हम सब मिलकर उसका निदान ढूंढ़ते थे। निजता क्या चीज होती है, हमें नहीं पता था। हालांकि अलग तरीके से इसका खयाल रखने वाले भी थे। पता बस इतना था कि जो है, उसमें मस्त रहो।
अब ऐसा कुछ भी नहीं दिखता। समय के साथ सब कुछ बदल-सा गया है। आज के माता-पिता अपने बच्चों को बचपन से ही अलग कमरा देने लगे हैं, ताकि उनकी निजता बनी रहे और उनकी पढ़ाई किसी भी सूरत में बाधित न हो। मेहमानों के आगमन पर भी वे कमरे से बाहर न निकलें, इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है। इस व्यवस्था में पलते-बढ़ते बच्चे जब युवा की श्रेणी में आते हैं तो बिल्कुल एकांतप्रिय हो जाते हैं। फिर नौकरी लगती है, जिसके लिए कभी बाहर जाना पड़ता है और अगर उसी शहर में दफ्तर है तो दिन और रात की ड्यूटी के बीच में झूलते रहते हैं। परिवार में क्या चल रहा है, माता-पिता को क्या परेशानी है, इन सबसे उनका कोई सरोकार नहीं होता, क्योंकि उन्हें कभी पारिवारिक विचार-विमर्श में शामिल किया ही नहीं जाता है।
बेहद दुख की बात है कि जो काल खंड चतुर्दिक दिशाओं से वास्ता रखने का है, उसी काल खंड में हमारा युवा वर्ग बिल्कुल आत्म केंद्रित रहता है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि आज के युवा पैसे कमाने की होड़ में इस तरह शामिल हो गए हैं कि उनके पास कुछ भी और करने के लिए समय नहीं है। सुबह से लेकर देर रात तक वे बस अपनी दुनिया में मशगूल रहते हैं। इस आपाधापी में सब कुछ पीछे छूटने लगता है- नाते-रिश्ते, दोस्त सब पुरानी बातें हो जाती हैं। इस तरह की नीरस जीवनचर्या कुछ लोग ज्यादा दिनों तक नहीं झेल पाते हैं। नतीजा होता है कि वे तनाव और अवसाद जैसी विकृतियों के शिकार हो जाते हैं।
हालांकि थोड़ा करीब से देखा जाए तो इसमें आज के युवाओं का कम और उनके माता-पिता का दोष ज्यादा नजर आता है। अपने से दूर करने वाली शिक्षा आमतौर पर उन्होंने ही दी होती है बच्चों को। बचपन से उन्होंने पढ़ाई करने के अलावा कुछ भी नहीं सिखाया होता है बच्चों को। बच्चों के सामने ही खुद मर-मर के काम करते रहते हैं और बच्चों को किताबों से सिर नहीं उठाने देंगे। बच्चों के परीक्षा के नतीजों से लेकर नौकरी में उनकी ऊंची तनख्वाह तक से अपनी प्रतिष्ठा उन्होंने जोड़ ली है।
ऐसे में अगर विदेश में किसी बड़ी कंपनी में करोड़ों का पैकेज मिल जाए तो सोने पर सुहागा। फिर तो पड़ोस में खबर का विस्तार करने में असीम सुख मिलता है। मैं ऐसे कई माता-पिता को जानती हूं जो अपने बेटे-बेटियों के विदेश में रहने की बातें बड़े गर्व से करते हैं। लगता है जैसे उन्होंने जग जीत लिया और उनका जीवन सफल हो गया। सारे सपने पहले उन्होंने ही देखी, फिर बच्चे को दिखाया। और जब बच्चे उन सपनों को जीने लगे, तब माता-पिता को महसूस हुआ कि उनसे कोई चूक हो गई। उन्हें लगने लगा कि उनका बच्चा उनसे विमुख हो गया। एक लोकप्रिय कहावत है- ‘अब पछताय होत क्या जब चिड़िया चुग गयी खेत।’
सामाजिक प्रशिक्षण एक ऐसी चीज है कि बच्चे के जन्म लेने के बाद हम जैसा माहौल उन्हें देते हैं, जैसा विचार उनके भीतर भरते हैं, उसी से उनकी मानसिकता का निर्माण होता है। उसे से उनके सोचने-समझने और मनोविज्ञान की दिशा तय होती है। इसलिए अब आवश्यक है कि हम अपने बच्चों को ऐसी शिक्षा की ओर अग्रसर करें जिससे वे संपूर्ण नागरिक बन सकें। उन्हें किताबी ज्ञान तो दें ही, लेकिन सामाजिकता का पाठ भी पढ़ाएं।
उन्हें ज्ञानी बनाने के साथ शिक्षित भी बनाएं। आत्मनिर्भर बनाएं, घर के काम सिखाएं, रसोई की चीजों की पहचान कराएं, साथ ही दया, सहानुभूति, सद्भावना, कृतज्ञता आदि मानवीय मूल्यों की अहमियत भी बताएं। उन्हें जीवन में उतारने के लाभ बताएं। उन्हें यह भी बताएं कि आपसी मेलजोल से और एक दूसरे का खयाल रखने से जीवन कितना खूबसूरत बन जाता है। सबसे अहम कि उनके साथ विचार-विमर्श करें। घर की समस्याओं से उन्हें अवगत कराएं। समाधान ढूंढ़ने में उनकी मदद लें। देश की समस्याओं पर भी उनकी राय जानने की कोशिश करें। ऐसा करने से हमारा युवा वर्ग सक्षम और संवेदनशील बनेगा। जिंदगी की तमाम चुनौतियों का सामना बिना गिला-शिकवा के हंसते-हंसते करेगा। ऐसा युवा वर्ग परिवार, समाज और देश- सबके काम आएगा।