अशोक कुमार

हमारे यहां हर वर्ष कड़ाके की ठंड, भीषण गर्मी और अतिवृष्टि के चलते हजारों गरीब-गुरबा लोग दम तोड़ देते हैं। जो मौसम एक वर्ग के लिए सुहाना होता है, वही दूसरे के लिए जानलेवा बन जाता है। जब यह पता है कि अपने देश में मौसम की ऐसी स्थिति है, तो सरकारी नीतियों और योजनाओं में इससे बचाव के आधुनिक उपाय शामिल किए जाने चाहिए।

हमारे देश का एक बड़ा तबका ऐसा है, जो आर्थिक कारणों से इस मौसम की मार का मुकाबला करने में असहाय है। भारत गांवों का देश है, जहां बीस प्रतिशत परिवारों को तन ढकने के लिए न्यूनतम कपड़े, रात को सिर के ऊपर एक छत और दो जून का खाना भी नसीब नहीं है। सरकारी नियमों की खानापूर्ति के तौर पर ऐसे लोगों के लिए हालांकि शहरों के कुछ चौक-चौराहों, रैन बसेरों के पास रात में अलाव जलाए जाते हैं, लेकिन इससे कड़ाके की सर्दी में पीड़ितों को पूरी तरह लाभ नहीं मिल पाता। ग्रामीण क्षेत्रों में तो मौसमी मार से लोगों का हाल बुरा होता है।

हमारे बचपन में जाड़े के दिनों में शाम को दादी पारंपरिक तरीके से मिट्टी की बनाई ‘बोरसी’ भरने में जुट जाती थीं। उसमें धान की भूसी और गोबर के उपले भरे जाते थे, जिसकी आग दूसरे दिन सुबह तक शरीर को गर्मी देने के काम आती थी। उसी बोरसी में कच्चे आलू पका कर बने चोखे का स्वाद आज भी जबान से उतरना नहीं चाहता। दादी सोने से पहले हाथ में सरसों का तेल लगा कर बोरसी की मंद ताप से हाथ-पैर को सेंक दिया करती थीं, जो शरीर को ऊर्जा से भर देता था। हालांकि जमाने से चली आ रही यह रीत गांव में आज भी देखने को मिलती है, पर बदलते समय के प्रवाह में बाजार ने बहुतों को आधुनिक विद्युत सामग्री का उपभोक्ता बना दिया है। ग्रामीण बुजुर्गों के स्वास्थ्य की रक्षा में बोरसी की आग आज भी प्रसांगिक और लाभप्रद है, भले आधुनिक चकाचौंध में लिप्त नगरीय संस्कृति से यह विलुप्त हो चुकी है।

एक स्थानीय अखबार ने बड़े अक्षरों में नगर के पाठकों से गरम वस्त्र दान हेतु निवेदन प्रकाशित किया था। घर में बात की, तो सालों से पड़े गरम कपड़ों की छंटाई कर उन्हें अखबार के दफ्तर में पहुंचाने पर सहमति बन गई। वस्त्रदान कर मन इस चिंतन में डूब गया कि आखिर ऐसे सद्कार्य के लिए अखबार प्रतिष्ठान की सूचना ही क्यों माध्यम बनी। हम यह पहले क्यों नहीं तय कर सके कि जो कपड़े आलमारी की निरर्थक शोभा बढ़ा रहे थे, जिन्हें हम कभी पहन नहीं सकते, उन्हें जरूरतमंदों को क्यों नहीं दे दिया।

घर में गरम कपड़ों के अलावा बहुत से ऐसे सामान जैसे बर्तन, चादर, परदे, रजाई, कंबल आदि जो उपयोग नहीं हो पाते, उन्हें सही लाभार्थी को सुपुर्द क्यों नहीं कर पाते। कभी दशहरे, होली, शादी-विवाह के मौके पर ही घर के लोगों के कपड़े खरीदे जाते थे, जबकि आज आनलाइन या आफलाइन खरीदारी के मोह में हम जरूरत से अधिक कपड़े खरीद कर भंडारण में जुट गए हैं। बहरहाल, ठंड की बयार को जिस रूप में मुंशी प्रेमचंद की ‘पूस की रात’ में हल्कू ने भोगा था, वह आज भी अपने संशोधित संस्करण में निर्धनों के लिए जस की तस बनी हुई है।

जाड़े के दिनों में आज भी गांवों के अधिकांश घरों में पुआल पर कंबल या दरी बिछा कर सोने का चलन है। इसी तरह शरीर को गरम रखने के लिए मेथी के लड्डू, विभिन्न किस्म के अचार की आदत आज भी बनी हुई हैं। छोटे-बड़े शहरों में रिक्शा, ठेला, टमटम के अधिकतर चालकों को समुचित रैन बसेरे के अभाव में फुटपाथ पर सर्द रातें बितानी पड़ती हैं। आंकड़े बताते हैं कि देश के करीब तीस लाख गरीब लोग खुले आसमान के नीचे रात गुजारने को मजबूर होते हैं। आश्चर्य और दुख की बात है कि मुंबई और कोलकाता में दुनिया की सबसे अधिक झुग्गी-झोपड़ी और गरीबी मौजूद है, जहां की सर्द रातें हर साल कयामत ढाती हैं।

सवाल है कि जाड़े के दिनों में अगर पुराने गरम कपड़े योग्य परिवारों को सौंपने में हम जो कृपणता कर रहे हैं, उससे निवृत्त कैसे हुआ जाए? क्या हम हर साल यह योजना नहीं बना सकते कि घर के किसी कोने में लावारिस पड़ी घरेलू सामग्री को वास्तविक व्यक्तियों तक पहुंचाने का लक्ष्य निर्धारित करें। इसके लिए मन को जटिलताओं से उबार कर उसे उदारता की ऊष्मा प्रदान करनी होगी। किसी अखबार की सूचना या किसी स्वैच्छिक संस्था की पहल या अभियान का हम क्यों मोहताज बनें। इस तरह हर साल कड़ाके की सर्दी से कुछ लोगों के ठिठुरते और कांपते शरीर को ढक तो जरूर सकते हैं। शायद इस कृत्य-कल्प से ‘पूस की रात’ के हल्कू की आत्मा को सुकून अवश्य मिलेगा।