अब टीवी देखा जाए या इंटरनेट पर कोई आॅनलाइन वीडियो, पहले विज्ञापन ही दिखाई देता है। कई बार ऊबने के बावजूद ऐसा लगता है कि लोग इसे लेकर सहज होते जा रहे हैं। हालांकि जितनी सहजता से विज्ञापन को लिया जाता है, उसका प्रभाव उतना सीमित नहीं है। अगर यह कहा जाए कि वर्तमान दौर में यह ‘सामाजिक प्रक्रिया’ का एक महत्त्वपूर्ण अवयव है तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी।

उदारीकरण की शुरुआत के बाद भारतीय बाजार में कई बदलाव आए। बाजार का विस्तार तो हुआ ही, वस्तुओं को बेचने के नए-नए तरीके ईजाद हुए, विज्ञापन का स्वरूप भी बदला। विज्ञापन के मूल में यही मनोविज्ञान काम करता है कि लोग इसे तर्क की दृष्टि से नहीं देखें, बल्कि यह मनुष्य के अवचेतन पर प्रहार करे, जहां से वह गुण-अवगुण छोड़ कर इसके बाहरी चमक-दमक से प्रभावित होकर इसे खरीदने की इच्छा पालना शुरू कर दे। इसलिए अधिकतर विज्ञापन इस तरह के होते हैं, जिसमें संबंधित वस्तु के बारे में कम, अन्य चीजों के बारे अधिक दिखाया जाता है। उदाहरण के लिए एक सैंडविच के प्रचार में समंदर किनारे कम वस्त्रों में किसी महिला मॉडल को दिखाने की जरूरत क्यों है!

फिलहाल विज्ञापनों से संबंधित नियम काफी उदार हैं। हम वैसी चीजों को भी चुन कर हटा नहीं पा रहे हैं, जो समाज के लिए ठीक नहीं है। गहराई से देखा जाए तो अधिकतर विज्ञापन शहरी और उच्च या उच्च-मध्य वर्गीय पसंद को केंद्र में रख कर तैयार किए जाते हैं। लेकिन टीवी और केबल का प्रसार अपेक्षाकृत कम आय वर्गों तक भी हुआ है। विज्ञापनों की प्रकृति से ऐसा सामाजिक प्रभाव पैदा करने की कोशिश की जाती है कि अगर वह चीज आपके पास न हो तो आप खुद को शर्मिंदा महसूस करने लगें। मसलन, अभी एक ‘एचडी चैनल’ का प्रचार आता है, जिसमें मूल बात यह है कि आपके पास अगर एचडी चैनल नहीं है तो आपका टीवी महज एक डिब्बा है। फिर इस डिब्बे का हरेक उम्र के लोगों के जरिए तिरस्कार करवाया जाता है। कल्पना कीजिए कि जिनके पास एचडी चैनल की सुविधा नहीं होगी, यह विज्ञापन देखने के बाद उनकी मनोदशा क्या होती होगी!

यह एक वर्ग की आकांक्षाओं को दूसरे वर्ग पर थोपने जैसा है। यह जबर्दस्ती लोगों में ‘वर्गीय उत्क्रमण’ कराने का प्रयास करती है। इसलिए ‘श्वेत वस्तुओं’ को खरीदने के चक्कर में प्राथमिकताओं से ध्यान हटता है और अगर ऐसा न हो तो एक सामाजिक दबाव रहता है। इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि यह परोक्ष रूप से भ्रष्टाचार को भी बढ़ावा देता है। एक तरह से ऐसे विज्ञापन ‘मानक मानव’ गढ़ने की कोशिश करते हैं। यानी जिनके पास ‘यह’ नहीं है, वह ‘निम्न स्तर’ के लोग हैं। इस तरह से वस्तुओं के उपयोग के आधार पर सामाजिक विभेदीकरण किया जा रहा है जो काफी खतरनाक है।

दरअसल, विज्ञापन ने स्त्री देह को एक ‘प्राप्य’ के रूप में प्रस्तुत करने में काफी योगदान दिया है। चाहे कोई खाने-पीने की चीज हो या फिर पुरुष सौंदर्य प्रसाधन की, इसके प्रचार के केंद्र में महिलाएं होती हैं। किसी भी डियोड्रेंट के विज्ञापन का निहितार्थ यही होता है कि इसे लगाने के बाद लड़कियां आपकी दीवानी हो जाएंगी। शेविंग क्रीम से लेकर कपड़े तक के विज्ञापन में स्त्री-देह की ओर ध्यान खींचना ही उद्देश्य होता है। ऐसे विज्ञापन स्त्री का व्यक्तित्व और अस्तित्व समाप्त कर उसे देह मात्र के रूप में प्रस्तुत करता है। इसके अलावा, कुछ बिल्कुल अनावश्यक और गलत विज्ञापन होते हैं और कुछ नस्लीय गुलामी के प्रतीक भी। यह गोरे नस्ल के आगे समर्पण नहीं तो और क्या है कि विषुवत रेखा के निकट के देश में गोरा बनाने वाला क्रीम न केवल बिक रहा है, बल्कि गोरापन सुंदरता का मानक भी बन गया है।

हाल में सुप्रीम कोर्ट ने गलत प्रचार के मसले पर का संज्ञान लिया है। दरअसल, कुछ अभिनेता और अभिनेत्री मैगी को ‘स्वास्थ्यवर्धक’ बता रहे थे। शराब और तंबाकू के उत्तेजक विज्ञापनों पर भी लगाम लगाई जानी चाहिए। एक पान मसाला का विज्ञापन करते हुए अजय देवगन कहते हैं कि इसके दाने-दाने में ‘केसर’ है। सच यह है कि उन्हें कहना चाहिए कि इसके दाने-दाने में ‘कैंसर’ है। काफी पहले एक सिगरेट कंपनी की मांग पर ‘बर्नेस’ ने सिगरेट पीने को स्त्री आजादी से जोड़ दिया। अब इसका कितना असर स्त्री की आजादी के सवाल पर पड़ा, यह अलग विषय है, लेकिन इसने स्वास्थ्य पर कितना असर डाला इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है।

मुक्त बाजार के इस दौर में प्रतिबंध लगाना एक अच्छा विकल्प नहीं है, लेकिन ध्यान रखना होगा कि यह हमें किस हद तक प्रभावित कर रहा है। जहां से यह नकारात्मक असर दिखाना शुरू करे, उससे पहले ही इस पर लगाम लगाने की व्यवस्था होनी चाहिए, क्योंकि इससे न केवल एक कृत्रिम सामाजिक विभेदीकरण की स्थिति बन रही है, बल्कि अनेक अन्य आर्थिक और स्वास्थ्य संबंधी दुष्परिणाम भी उभर कर आ रहे हैं।