सत्यदेव त्रिपाठी
अभी चंद दिनों पहले चेन्नई में ग्यारहवीं की एक लड़की ने यौन शोषण से तंग आकर आत्महत्या कर ली। अपने नोट में उसने लिखा कि इस समाज में आज कोई लड़की दो ही जगह सुरक्षित है- मां की कोख में या फिर अपनी कब्र में। किसी भी सभ्य समाज के लिए यह डूब मरने की बात है, जो अपनी बहन-बेटियों को इतनी कम उम्र में इतनी वीभत्स सांसत में झोंक देता है कि एक गैरतदार लड़की इतना बड़ा कदम उठाने को मजबूर हो जाती है।
इस नोट में बच्ची ने उन दो पुरुष घटकों का जिक्र किया है, जो उसके जीवन में सबसे पहले आते हैं- जन्मदाता-पालक पिता और उसे विद्या-ज्ञान के रूप में जीवन का पाठ पढ़ाने वाला शिक्षक। उसके शब्दों में- ‘स्कूल सुरक्षित नहीं है। टीचर पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता।’ और पिता को सीधे कठघरे में न रखते हुए कहती है- ‘पिता को चाहिए कि वे अपने बेटों को लड़कियों की इज्जत करना सिखाएं।’ शिक्षकों द्वारा बरगला-फुसला कर, प्रलोभन या प्रेम के नाम पर छल से लड़कियों के दैहिक शोषण से आज कौन अनजान होगा? यानी ये बातें न नई हैं, न पहली बार कही गई हैं, पर खुद की जान लेते हुए इस दो-टूक ढंग से कह पाना शायद पहली बार हुआ है, जब कानून-व्यवस्था से अलग मानव-प्रकृति और हमारी जीवन-पद्धति तथा सोच के सामने कुछ बुनियादी सवाल झांकने लगे हैं।
हमारी प्राचीन व्यवस्था में स्त्री के बाहर निकलने, पढ़ने-लिखने की मनाही थी- ‘स्त्री-शूद्रौ नाधीयताम्’ का सूत्र था। इससे वह शिक्षक आदि बाहरी समाज के संपर्क से ही काट दी गई थी। यहां तक कि युवा हो जाने पर बेटी अपने पिता के साथ भी अकेले या एकांत में नहीं रह सकती थी। ऐसी तमाम तरह की बंदिशों-वर्जनाओं के चलते ही उस व्यवस्था को ‘वर्जनामूलक’ कहा गया, जो हर तरह की रोकों पर टिकी थी।
इससे एक तरफ स्त्री को सुरक्षित मान लिया गया था, वहीं दूसरी तरफ समय के सांचे में ढल कर मजबूर स्त्री और समर्थ पुरुष (पिता तक) आदि सबने इसे मजबूरन या मसलहतन स्वीकार कर लिया था। वह व्यवहार में पूरी तरह उतर चुका था। यह सब कुछ जड़ हो चुका था, उस घिनौने रूप तक पहुंच गया था कि समूचे जीवन की सारी मूलभूत सुविधाओं-सुखों से महरूम होकर स्त्री जाति गुलाम जैसी नारकीय जिंदगी जीती रही और ऊपर से ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, रमंते तत्र देवता:’ जैसा शाब्दिक महिमामंडन पाती रही!
फिर पुनर्जागरण आया। वह जड़ता टूटी और इससे आई जागृति में स्त्री-पुरुष और जाति-संप्रदाय आदि सभी में समान हक और बराबरी के दर्जे के कायदे-कानून बने। ज्ञान-विज्ञान, साहित्य-संस्कृति आदि में गहन-गंभीर विमर्श शुरू हुए। इन प्रयत्नों से जाति और लिंग आदि भेदोपभेदों तथा तमाम ढकोसलों-पाखंडों के उन्मूलन के प्रयत्न हुए। अखिल मानवता में दरकिनार कर दी गई स्त्री जाति की आधी आबादी की मुक्ति के भी जयघोष हुए। इन सबके परिणाम स्वरूप ही आज पद-दलित पिछड़ी जातियां और घरों में बंद गुलामी झेलती स्त्रियां जीवन के हर क्षेत्र में सवर्णों और पुरुषों के समकक्ष खड़ी हैं।
पर इन सबका समूल उच्छेदन आज तक न हो पाया। व्यावहारिक जीवन में स्थितियां शत-प्रतिशत समान नहीं हो सकी हैं। प्रभुता-सम्पन्न लोग आज भी पूर्ववत अपनी वाली चला रहे हैं और गुंडों-बदमाशों के रूप में एक और बड़ा वर्ग खड़ा हो गया है। ऐसा मारक नोट भले एक बार आया हो, लेकिन ऐसे यौन-शोषण और ऐसी आत्महत्याएं आए दिन होती रहती हैं। मामले बनते हैं, सुनवाइयां होने में दशकों गुजर जाते हैं और सजाएं होने तक देश में हजारों ऐसी वारदातें होती रहती हैं।
यह न वर्जना से रुका और न अब कानून से रुक रहा है। पर प्राचीन व्यवस्था में वर्जना के साथ अन्य मानवीय गुणों को विकसित करने के रास्ते सुझाए गए, जिससे उस पशुता पर विजय पाकर बेहतर मनुष्य की आदर्श स्थिति को पाया जा सके। पर इस स्थिति तक आम आदमी के पहुंचने की तो क्या बात की जाए, ऋषि-मुनि तक बार-बार स्खलित होते रहे।
आज के समाज ने तो नैतिक मानदंड बनाए ही नहीं। उलटे पारंपरिक शृंखला में नैतिक मूल्यों के जो पाठ हमारी शिक्षा में थे भी, वे अब आधुनिकता के बहाने पाश्चात्य सभ्यता की नकल और व्यावसायिक मूल्यों के नाम पर खत्म हो गए। नकल न करने की गांधीजी की ईमानदारी, आरुणि की जानदेवा कर्त्तव्य-परायणता, कौत्स और रघु की मूल्य-निष्ठा आदि बहुत कुछ सरल भाषा में छठवीं-सातवीं से लेकर बारहवीं तक पढ़ाया जाता था। उसके असर होते थे। लेकिन इन सबको पिछड़ा और कालबाह्य (आउट डेटेड) कह कर निकाल फेंका गया।
इसी का परिणाम है, आज की भौतिक लिप्सा और निरंकुश सोच का साम्राज्य। लूट-पाट, हिंसा-बलात्कार के मामले आम हैं, जिनमें मंत्री से लेकर न्यायाधीश तक और संपादक से लेकर कुलपति तक, संत-महात्मा सभी मुब्तिला हैं। पर उन्मुक्त समाज निरा पशुवत होगा। मनुष्यता के विकास के इस उन्नत सोपान पर पशुवत हो जाना क्या हमारी सभ्यता-संस्कृति को कबूल होगा!