जयराम शुक्ल

इंदौर में एक बड़े कोचिंग इंस्टीट्यूट के साइनबोर्ड पर नजर ठिठक गई। यूपीएससी, पीएससी के मुकाबले ज्यादा मोटे हर्फों में पटवारी की परीक्षा की कोचिंग की बात लिखी थी। इंदौर प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी का हब बन चुका है। मुझे कुछ अटपटा भी लगा। लेकिन पीएससी की तैयारी कर रहे मेरे एक मित्र के बेटे ने बताया, ‘यह कोई अटपटी बात नहीं, मैं और मेरे बैच के सभी लड़के इस परीक्षा में बैठने जा रहे हैं। पहले कहीं तो ठिकाना मिले। वैसे यह परीक्षा भी कम चुनौतीपूर्ण नहीं है। दिल्ली आइएएस की कोचिंग लेने वाले भी इसमें बैठ रहे हैं।’ ये उस लड़के के बयान हैं जो एक प्रतिष्ठित इंजीनियरिंग कालेज से अच्छे अंकों से बीई कर चुका है। बारहवीं तक टापरों की श्रेणी में रहा है। बेरोजगारी की यह भयावह स्थिति आंखें खोल देने वाली है। याद करता हूं कि प्रदेश और केंद्र की सरकारों में जो बैठे हैं, उन्होंने हर हाथ को काम, प्रति वर्ष लाखों को नौकरियां देने का वादा अपने घोषणापत्रों में किया था। सोशल मीडिया में इन दिनों पटवारियों की भर्ती की बात ट्रेंड कर रही है। नौ हजार पदों के लिए तेरह लाख अर्जियां पड़ी हैं। यह हाल तब है जब न्यूनतम योग्यता बारहवीं से बढ़ा कर स्नातक कर दी गई है।

पीएसी, पुलिस और कुछ अन्य नौकरियों को अलग कर दें तो मध्यप्रदेश में पंद्रह साल से संविदा-संस्कृति चल रही है। उच्चशिक्षा तो लगभग पूरी तरह अतिथि विद्वानों पर निर्भर है। दिहाड़ी, संविदाकर्मी, अतिथि विद्वान या जो अन्यनाम वाले अनियमित पद हैं उनके और नियमित लोगों के वेतन का फासला तीन बनाम बीस का है। अतिथि शिक्षक पंद्रह हजार रुपए पाता है मगर नियमित प्राध्यापक एक लाख रुपए से ज्यादा पाता है। कमाल यह है कि नियमित शिक्षक पढ़ाते भी नहीं और संविदा शिक्षक दिन-रात खटते हैं। सरकार नियमित भर्तियां इसलिए नहीं करती कि जब पंद्रह हजार के गुलामों से काम चलता है तो एक लाख क्यों दें।
हम सरकार पर भरोसा करते हैं कि वह अन्याय रोकेगी। यहां तो उलटे वही दमन और शोषण कर रही है। यह हाल उन युवाओं का है जो पढ़-लिख कर संविदा और दिहाड़ी जैसा कुछ अर्द्धरोजगार कर तो रहे हैं, इनसे दस-पंद्रह गुना संख्या उनकी होगी, जो पूरी तरह बेरोजगार हैं। अब जब सरकार के ही घर में अंधेर चल रहा है तो निजी क्षेत्र की कौन कहे। पटवारी पद के लिए अर्जी देने वालों में एमबीए के लड़के भी हैं। कभी इन्होंने उत्साह से पैकेज पकड़ा था। पैकेज वाली कंपनियां छंटनी कर रही हैं और कम वेतन पर काम कराने को मजबूर कर रही हैं। जो काम कर रहे हैं उनकी जवानी और प्रतिभा ऐसे निचुड़ रही है जैसे चरखी में गन्ना टटेर बनके निकलता है।

प्रदेश में 2008 से वैश्विक निवेशक सम्मेलन हर अंतरे साल हो रहा है। पूंजीपतियों को लुभाने में अब तक जितने खर्च हुए उतने का भी पूंजीनिवेश नहीं आया। सरकार से पूछा जाना चाहिए कि कितने युवाओं को पूंजीनिवेश से खड़े उद्योगों में रोजगार मिला। सरकार ने युवाओं के शोषण का एक और रास्ता खोल दिया है। यह आउटसोर्सिंग का मकड़जाल है। सेवा क्षेत्र में यह अमरबेलि की तरह फैल रहा है। एक दिन एक चैनल की बहस में आपातकालीन स्वास्थ्य सेवा ‘डॉयल 108’ के ड्राइवरों का मुद्दा आया। मैं भी था उस बहस में। ड्राइवरों का प्रतिनिधि अपनी बात रखते हुए रो पड़ा। बारह घंटे की नौकरी, तनख्वाह आठ हजार महीना, वह भी हर महीने नहीं। न पीएफ न अन्य सुविधाएं। नौकरी से निकालने की धमकी हर वक्त। मध्यप्रदेश में ‘डॉयल 108’ जो कंपनी चलाती है वह इतनी अमीर है कि विदेशी बैंकों में बड़ा धन जमा कर रखा है। पैराडाइज लीक्स में इसका नाम है और यह भी संदर्भित है कि इस कंपनी में बड़े नेता की भागीदारी है। जितनी भी आउटसोर्सिंग की एजेंसियां हैं, उनके पीछे कोई न कोई नेता या नौकरशाह खड़ा मिलेगा। ये अकूत धन कमाके विदेशों में गाड़ रहे हैं, पर जिनको काम पर रखा है उन्हें चूसने से बाज नहीं आ रहे।

श्रम विभाग को नखदंत विहीन कर दिया गया है। कमजोर लोग उच्च न्यायालय में जाने की सामर्थ्य नहीं रखते इसलिए पिस रहे हैं। निजी सुरक्षा एजेंंसियों का गोरखधंधा और भीषण है। छह हजार महीने की पगार पर बारह घंटे की ड्यूटी। जिन सरकारी-गैरसरकारी विभागों से अनुबंध होता है उनसे पंद्रह से बीस हजार महीने में प्रति व्यक्ति तय होता है लेकिन सुरक्षा गार्ड के हिस्से आता है महज छह हजार। बाकी मिल-बांट कर हजम। गैरबराबरी, शोषण के चक्रव्यूह में हमारी युवाशक्ति फंसी है। राजनीतिक दलों के पास इन्हें छोड़ कर दुनिया भर के मुद्दे हैं। ऐसे में अगर पटवारी जैसी नौकरी के लिए भीड़ उमड़ रही हो तो यह दुखद कितना भी हो, अचरज की बात नहीं। सवाल यह है कि यह सब आखिर चलेगा कब तक!