मीना बुद्धिराजा
आज व्यक्ति की सफलता का एकमात्र पैमाना भौतिकतावादी संस्कृति के नियमों पर आधारित है, जिसमें बहुत से अमानवीय दबाव स्वीकार करना और बाजार की निर्मम प्रर्तिस्पर्धा में शामिल होना जैसे अनिवार्य शर्त बन गई है। सफलता को सर्वोपरि मानते हुए तमाम सामाजिक मूल्यों को दरकिनार करना जैसे सामान्य बात हो गई है। जबकि सफलता का वास्तविक अर्थ वह है, जो व्यक्ति के अस्तित्व का विकास करे, संकीर्णता से मुक्त करके उसकी दृष्टि को उदार और व्यापक बनाए।
वह सफलता ही सार्थक हो सकती है, जो एक ही लीक से अलग हट कर किसी नए विकल्प के मार्ग की चुनौतियों से जूझते हुए प्राप्त की जाए। इसका कारण स्पष्ट है और कहा भी गया है कि मूर्खों की सफलताओं की अपेक्षा बुद्धिमान और विचार संपन्न मनुष्य की गलतियां समाज के लिए अधिक मार्गदर्शक सिद्ध हो सकती हैं, उसका निर्माण कर सकती हैं। वह सफलता जो भीड़ के अनुकरण की प्रवृत्ति से नहीं, बल्कि लीक से हट कर, अपने संघर्ष से प्राप्त हो, व्यक्ति की चेतना को आंतरिक रूप से समृद्ध करे और उसे नए विकल्पों और अज्ञात संभावनाओं की ओर ले जाए।
सफलता की वही परिभाषा सार्थक और मानवीय हो सकती है, जिसमें जीवन को देखने की स्पष्टता हो, जो क्षणिक, संकुचित और छोटी महत्त्वाकाक्षांओं पर निर्भर न हो और जो अपनी समग्रता में कालातीत हो। यह सफलता समाज के हित के लिए मूल्यवान और युगीन दृष्टि से उदार हो तथा जीवन के बोध को उसके उत्कर्ष की उंचाई तक और उसकी अर्थवत्ता की पराकाष्ठा तक ले जा सके।
यह सफलता का सूत्र उपभोगवादी सभ्यता के सामूहिक दबाव और बाजारवादी संस्कृति के प्रभाव से नहीं, अपने अनुभवों की स्वतंत्र सोच और विवेक दृष्टि पर आधारित हो सकता है, जो सिद्धांतों पर चलने वाले व्यक्ति के लिए कठिन तो है, पर असंभव नहीं है। जो बड़े लक्ष्य और आकांक्षाएं पूरी नहीं हो पातीं उन्हें पाने के अथक प्रयासों में भी एक दुर्निवार आकर्षण होता है। अपनी पूर्णता की प्रतीक्षा में वे सबसे सुदंर और सार्थक होती हैं।
ये उद्देश्य मनुष्य को एक बड़ा नजरिया और उदार सोच प्रदान करते हैं, जीवन को जीने की सीमित दृष्टि के दायरों से मुक्त करते हैं। अपनी अदृश्य संभावनाओं में और परिणामों की अपूर्णता में भी पूर्णता के आनंद का अर्थ भरने तथा उन इच्छाओं को प्राप्त करने के संघर्ष में भी सौंदर्यबोध को उत्पन्न करने में सफलता की यह पूर्व प्रक्रिया भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण है, जिसमें मानसिक रूप से जीत के लिए ही नहीं, पराजय के लिए भी स्थिरता होनी चाहिए। यही सफलता जीवन को खुला विस्तार देती है और उद्देश्य के शिखर तक जाने के लिए और कमियों को सुधारने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ देने की चुनौती स्वीकार करने की मानवीय और वैचारिक शक्ति भी प्रदान करती है।
समाज को एक ऐसे विकल्प की प्रतीक्षा सदा रहती है, जो उसे एक उचित दिशा दे सके और इसलिए उसे अदृश्य होने से बचा लेना बहुत आवश्यक होता है, जो उसे एक स्थायी विचार के रूप में प्राप्त हो सके। आज पूरी व्यवस्था, मीडिया और बाजार यह वातावरण निर्मित कर चुका है कि जीवन का अंतिम उद्देश्य अधिक से अधिक उपभोग, उच्च पद, क्षणिक लोकप्रियता, सामाजिक प्रतिष्ठा और सुख-सुविधाओं को किसी तरह हासिल करना मनुष्य के लिए सर्वोपरि हो गया है।
सफलता की इस अवधारणा में नैतिकता, मानवीय मूल्यों और प्रकृति के लिए सहानुभूति के लिए कोई जगह जरूरी नहीं, जो इसकी एकांगी और संकीर्ण परिकल्पना कही जा सकती है। वह सफलता, जो मानवीय अस्तित्व की सार्थकता की कीमत पर ही संभव हो, चेतना और विवेक को उत्पाद में बदल कर मिलती हो, तो वह समाज के लिए निरर्थक और घातक है। यह संवेदनहीन समय की विवशता भले हो, लेकिन इसी निर्मम परिवेश और परिस्थितियों के दबाव में से अपनी वास्तविक सफलता की खोज करना ही एक सार्थक कोशिश मानी जा सकती है।
जीवन के विशाल स्वप्नों को बचाने के लिए सुविधापरक रास्तों से हट कर किसी नए आदर्श की खोज के लिए संघर्ष का करना ही सफलता का नया मानक बन सकता है। मगर हकीकत यह है कि बहुत कम लोग अपनी और समाज की मुक्ति के लिए स्वतंत्र राह का चुनाव करते हैं। ज्यादातर बने-बनाए सुविधाजनक रास्तों पर चलना बेहतर समझते हैं। मगर किसी असाधारण सफलता को पाने के लिए परंपरा से अलग किसी दुर्गम विकल्प के लिए भटकते हुए वही व्यक्ति कुछ ऐसा खोज सकता है, जो सफलता के प्रचलित और साधारण मापदंडों पर असंभव माना जा सकता हो, लेकिन जो इतना व्यापक, प्रभावशाली और मौलिक हो कि जिसके विषय में सफल होने के साधारण अर्थों की सीमाओं के कारण कभी सोचा न गया हो, तो वह सफलता व्यक्तिगत नहीं, बल्कि एक सामूहिक उपलब्धि कही जा सकती है। यह सीख बचपन से दी जानी जरूरी है।