कार्तिक महीने की सिहराती हुई उस सुबह उठ कर बालकनी में जाकर अखबार उठा कर सामने देखा, नजर पड़ी धूसर धुएं में खड़ी किसी आकृति पर। गौर से देखा तो आठ-नौ साल की बच्ची मटमैले लाल रंग की टी-शर्ट और हरे रंग की सलवार पहने खड़ी थी। उसके शरीर पर जो पुराने कपड़े थे, उनसे साफ लग रहा था कि वे उसके नहीं, उससे बड़ी किसी और बच्ची के थे। मुझे लगा कि उसने मुंह में कुछ भर रखा है। मैं उसके नजदीक गई, चिंता और गुस्से के मिले-जुले भाव से मैंने उसे डांटते हुए पूछा- ‘बीड़ी पी रही है?’ एक हाथ से सलवार पकड़े और दूसरे हाथ से चेहरे पर गिर रहे रूखे बालों को उसने हटाया और अपना मुंह खोल कर दिखाते हुए बोली- ‘नहीं, हम सूटी चबा रहे हैं।’ मैंने पूछा- ‘सूटी क्या है?’ मुंह चमका कर उसने जवाब दिया- ‘मीठा सुपाड़ी।’ दरअसल, इसी को वह देशी भाषा में ‘सूटी’ कह रही थी। मैंने फिर उससे पूछा- ‘क्यों खा रही हो?’ सवाल सुन कर मेरी फिक्र और फटकार से लापरवाह बड़े तल्लीन भाव से अपनी ‘सूटी’ चबाते हुए उसने जवाब दिया- ‘जब शौचालय की गंदगी साफ करती हूं तो घिन आती है। लेकिन सूटी मीठा और खुशबूदार होता है। इसे खाते ही मुंह मीठा हो जाता है और फिर घिन कम हो जाती है!’

छोटी-सी जुबान में अपनी कार्यदक्षता को वह बड़े इत्मीनान से ठीक वैसे ही समझा रही थी, जैसे कक्षा में कोई प्रोफेसर किसी गंभीर पाठ की जटिल व्याख्या को विद्यार्थियों के हिसाब से सहज भाषा में समझाते हैं। लेकिन अपने छोटे-से प्रश्न का इतना गहरा और गंभीर उत्तर पाकर आगे कुछ और पूछने की हिम्मत मुझमें नहीं बची थी। मेरा मन एकदम खाली और शांत हो गया था और वह मेरे मन की शून्यता से बेपरवाह अपनी शैली और समझ के हिसाब से ‘सूटी’ के गुर बताए जा रही थी। मुझे उसका नाम पूछने का भी ध्यान नहीं रहा। ‘सूटी’ खाती उस लड़की की आंखों की निश्छल चमक के गहरे अहाते में डूब कर मेरा मन दिल्ली की उन बड़ी-बड़ी ब्रांडेड कन्फेक्शनरी की दुकानों और आईसक्रीम पार्लरों की चमक की ओर दौड़ पड़ा। इन दुकानों पर चॉकलेट, मिठाई खाते और अपने मां-पिता से कुछ और खरीदने की जिद में मचलने वाले संभ्रांत, पैसे वालों के बच्चों की तस्वीर मेरी आंखों के सामने खिंच-सी गई।

वह अकेली ऐसी बच्ची नहीं है जो घरों में शौचालय साफ करने के त्रासद काम को अपने मुंह में कुछ ‘मीठा’ रख कर करती है। रोज सवेरे कंधे पर बोरा लटकाए घरों से कूड़ा बटोरने, पंचर की दुकानों पर उस्ताद की लताड़ खाकर टायर बदलने, ढाबों पर जूठा बर्तन मांजने, नगर निगम के कचरा घरों में कूड़े के अंबार पर खड़े होकर कूड़ा छांटते-बीनते हजारों बच्चे आज इस तरह के दूसरे काम को करने के लिए अभिशप्त हैं। वह देश की राजधानी दिल्ली हो या मायानगरी मुंबई, कोई सुदूर शहर, कस्बा हो या गांव-देहात। आज ऐसे कई लाख साधनविहीन बच्चे हैं, जो आधुनिक तकनीकी वाला भारत बनाने का दावा करने वालों और उनकी रची आभासी दुनिया के किसी स्याह खोह के घुप्प अंधेरे और बदहाली में जीने के लिए मजबूर है। स्कूल, पढ़ाई-लिखाई जिनके लिए महज सपना है। इस रहस्यमय आभासी स्मार्ट देश में बड़े करीने से ढंक कर सहेजी गई तस्वीरों के भीतर से जीवन की लताड़ खाकर पीले पड़े चुके लाखों बच्चों के चेहरे झांकते नजर आते हैं। प्रगति की रफ्तार में दौड़ते-भागते चमचमाते इस रंगीन ‘इंडिया’ से दूर इन बच्चों का अपना एक संसार है, जहां न तो सपनों का भाव है और न ही देश में अपनी हिस्सेदारी का अधिकार मांगने की चाहत या कामना।

हमारे देश और समाज के लिए इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि जहां समाज के एक खास वर्ग का बच्चा अपनी जीभ के स्वाद को तृप्त करने के लिए मीठा खाता है, वहीं आर्थिक रूप से लाचार वर्गों के तमाम बच्चे अपने पेट की भूख को तृप्त करने से ज्यादा गंदगी साफ करने जैसे काम का सामना करने के लिए मीठा खाते हैं। एक के लिए मीठा खाना शौक पूरा करने का सबब है, तो दूसरे के लिए मजबूरी और लाचारी की कोरी जुबान। दोनों वर्ग के बच्चों के लिए मिठास के मायने और स्वाद कितने अलग हैं! क्या ‘सूटी’ खाने वाली उस बच्ची जैसे बच्चों के मिठास के स्वाद का पैमाना हमारे राजनेता, नीति-आयोग के गठनकर्ता या फिर वोट बैंक की राजनीति करने वाले कभी महसूस कर सकेंगे? उस बच्ची की जुबान में कहें तो वह अपना मुंह मीठा करके चली गई, लेकिन सुबह की मेरी चाय मीठी होने पर भी पहली दफा मुझे बेहद कड़वी लगी। (बिंदु चौहान)