पड़ोसी एक ऐसा शब्द है, जिसका भूगोल संदर्भ के साथ बदलता रहता है। शहरीकरण की प्रक्रिया और आजीविका के लिए इस शहर से उस शहर की यात्रा में हमारे पड़ोसी भी बदलते रहते हैं। संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के अनुसार 2050 तक दुनिया की लगभग छियासठ प्रतिशत आबादी शहर में होगी। गांव में परंपरागत रूप से पड़ोसी अक्सर ‘पट्टीदार’ या ‘दयाद’ होते हैं, यानी जिनके पुरखे एक ही थे। वक्त के साथ परिवार बंटा और वे अलग-अलग रहने लगे। बढ़ती आबादी और सड़क या बाजार के किनारे घर बनाने के चलन ने पड़ोसी बदल लेने का विकल्प दिया है। सालाना कॉन्टैÑक्ट वाले किराए के घर में पड़ोसी बदलते रहने की संभावनाएं ज्यादा और आपसी संवाद की गुंजाइश कम रहती है।
हमारे बचपन के दिनों में पड़ोसी आपस में दूध, बर्तन, चायपत्ती से लेकर जोरन-जामन और हरी मिर्च तक का आदान-प्रदान करते थे। गावों में शादी विवाह के मौके पर बिस्तर और बर्तन गावों में अड़ोस-पड़ोस से ही इकट्ठे किए जाते थे और समाज के लोग मिल कर बरात का खाना बना लेते थे। यहां तक कि माचिस का प्रयोग गावों में कम होता था और गोबर से बनने वाली कंडी या गोइठा में आग ‘जिलाई’ जाती थी तो पड़ोसी लोग आग मांग के ले जाते थे। यानी एक घर में जलते चूल्हे से दूसरे घरों में भी आग की जरूरत पूरी की जाती थी। गावों में बरसात के मौसम में नाली के पानी बहने के रास्ते को लेकर पड़ोसियों का लड़ना एक परंपरा बन गया है। ये लड़ाई सालाना कार्यक्रम की तरह चलती रहती है! नाली के ऐतिहासिक विमर्श में गावों के मौखिक इतिहासकार अपनी-अपनी प्रतिबद्धता और तात्कालिक लाभ-हानि के हिसाब से पक्ष रखते हैं।
आज कल कुछ पड़ोसी राज्य पानी को लेकर एक दूसरे से ऐसे लड़ रहे हैं जैसे दिल्ली में पड़ोसी कार पार्किंग को लेकर लड़ते हैं। कुछ दूर के पड़ोसी लोगों के आने-जाने और रोजगार करने पर एतराज कर रहे हैं। फिलहाल दो राज्यों के बीच तनातनी पानी को लेकर हैं। प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन के परिणाम आने लगे हैं और पानी को लेकर संकट गहराने लगा है। दुनिया में करोड़ों लोगों को पीने के लिए स्वच्छ पानी उपलब्ध नहीं है। रहीम ने ठीक ही कहा था कि- ‘रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून, पानी गए न उबरे मोती मानुष चून।’
जब बात देश की हो तो पड़ोसी बदलने का विकल्प सीमित रहता है।
पचास से सौ सालों में कभी देशों के पड़ोसी बदलते हैं। भारत और पाकिस्तान दोनों देशों में राजनीतिक बोलचाल में ‘पड़ोसी’ का मतलब क्रमश: पाकिस्तान और भारत होता है। अपने दूसरे पड़ोसी देश का नाम लेकर बताना पड़ता है कि हम फलां देश की बात कर रहे हैं। सभी पड़ोसी देश एक दूसरे पर उनके आतंरिक मामले में हस्तक्षेप की शिकायत करते रहते हैं और बैठकों में हंसते-मुस्कराते गर्मजोशी के साथ तस्वीर खिंचवाते रहते हैं। मैं कतर में जिस इमारत में रहता हूं, वहां हमारे पड़ोस में से एक परिवार सूडान का, एक सीरिया का और एक मिश्र का है। भाषा और पेशा अलग-अलग होने के बावजूद एक दूसरे की मदद को लोग तैयार रहते हैं। पड़ोस में पाकिस्तान के कुछ परिवार हैं। दुकानदार ज्यादातर भारत के केरल से और बांग्लादेश के हैं। मोहल्ले में जो हमारे बच्चों के दोस्त हैं, उनमे से तीन पाकिस्तान के हैं। शायद भाषा और परिवेश की समानता उनके बीच सहज संबंधों का कारण हो।
हमारे दफ्तर में पाकिस्तान के फारूक बर्नी हैं, जिनका परिवार 1930 में बुलंदशहर से उधर गया था। हम एक पड़ोसी और साझी विरासत के नाते एक दूसरे की भाषा, संदर्भ को बेहतर समझते हैं। खुशी और चिंता बांटते रहते हैं। ऐसे ही लाहौर के दयाल सिंह मेनिसन में एक कम्युनिस्ट पार्टी के नेता हमसे गद्गद होकर मिले, क्योंकि उनकी पत्नी लखनऊ की हैं और मैं आजमगढ़ से। नार्वे की राजधानी ओस्लो में जब एक छोटे-से रेस्टोरेंट में खाना खाने गया तो मैनेजर नवेद ने अपनी तरफ से मुझे मीठे चावल खाने का प्रस्ताव दिया। उनका परिवार 1970 में रोहतक से पाकिस्तान गया है। नेपाल के रुपंदेही, सिंधुपोलचौक जैसे जिले में भी गावों के लोगों ने अपने घर में ठहराया और जब मैं जाने लगा तो फिर आने का न्योता दिया।
पड़ोसी देश नेपाल या पाकिस्तान की यात्रा और दूसरे देशों में जाने पर पड़ोसी देश के लोगों से मुलाकात हमारी समझ और विश्वास को बड़ा फलक देती है। देश के बाहर खाड़ी देशों में नौकरी के लिए आए भारत के पड़ोसी देशों नेपाल, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, अफगानिस्तान के लोगों ने हिंदी को एक संपर्क भाषा बनाने में बड़ा योगदान दिया है। पड़ोसी बदलने के विकल्प तो सीमित रहते हैं, पर पड़ोसी से दोस्ती कायम रखने और नए दोस्त बनाने के विकल्प तो हमेशा खुले रहते हैं।