अनीता यादव

बाजार का अपना आकर्षण है। वह अपनी ओर खींचता है। त्योहारों में यह खिंचाव अतिरिक्त रूप से बढ़ जाता है, क्योंकि उस वक्त बाजार जरूरत भी होता है। मैं बाजार जाते वक्त जरूरत के सामान की एक फेहरिस्त बना कर ले जाती हूं। पर ऐसा कभी नहीं हुआ कि उस फेहरिस्त भर ही सामान घर आया हो, बल्कि ऐसा भी होता कि उस फेहरिस्त का कोई सामान नहीं आया। बाजार के आकर्षण में अनावश्यक सामान ले आने वाली मैं अकेली नहीं। अधिकांश लोग ऐसे हैं। बाजार का आकर्षण न केवल अपनी ओर खींचता, बल्कि मन को जेब और बजट के विपरीत कर देता है। घर आकर एहसास होता है कि खरीदा गया सामान वास्तव में जरूरी नहीं था।

पिछले दशकों में मात्र त्योहारों पर सजने वाला बाजार आज पूरे साल सजा रहता है। बाजार भी जानता है कि व्यक्ति की आंखें उसके मन का रास्ता हैं। आज बाजार का मूल मंत्र है- ‘जो दिखता है, सो बिकता है’। ये आंखें बड़ी लालची होती हैं, व्यक्ति के बजट और चैन को नहीं देखतीं। भले कर्ज में डूबने की नौबत क्यों न आ जाए। आज बाजार घर के ड्राइंग रूम में प्रवेश कर चुका है।

मुझे बाजार से दिक्कत नहीं, क्योंकि बाजार को इस उत्तर-आधुनिक युग में नकारना लगभग असंभव है। मुझे दिक्कत है बाजार में भरे प्लास्टिक उत्पाद से। बाजार के समंदर में जहां तक आंखें जाती हैं वहां तक प्लास्टिक ही प्लास्टिक दिखता है। अब तो भारी मात्रा में ऐसे शोरूम दिखते हैं, जहां केवल और केवल प्लास्टिक का सामान बिकता है। रसोईघर में कूड़े की थैली से लेकर खाने के डिब्बे तक सब पर प्लास्टिक ने अपनी पकड़ बनाई हुई है। सुबह का नाश्ता पैक करने से लेकर रात के सोने तक किसी न किसी रूप में यह प्लास्टिक हमारे साथ न केवल उठता-बैठता, बल्कि सोता भी है।

लगता है, पूरी दिनचर्या प्लास्टिक में लिपटी हुई है। निम्न और मध्यवर्ग ने तो धातु को लगभग त्याग कर प्लास्टिक को ही जीवन का आधार बना लिया है। यह अकारण नहीं है। एक तो प्लास्टिक से बना सामान सस्ता होता है, जो आय और व्यय को संतुलित रखता है जो धातु से बने सामान में संभव नहीं। दूसरे, विभिन्न रंगों में उपलब्ध होने के कारण उसकी बनावट, सौंदर्य आकर्षित करता है। धातुओं में अगर स्टील को छोड़ दें तो लौह अयस्क की बढ़ती कीमतों ने भी रसोई घर में प्लास्टिक को स्थान देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। ऐसा कौन-सा उत्पाद है जो प्लास्टिक में उपलब्ध नहीं है।

घर के बर्तनों से लेकर सजावट के फूल पत्ती तक, सब प्लास्टिक में उपलब्ध है। हालांकि प्लास्टिक की खपत से उत्पन्न चिंता पर्यावरणविद और हर उस व्यक्ति के जेहन में रहती है, जो थोड़ी भी पर्यावरण की समझ रखता है। यह प्लास्टिक जेब पर भले हल्का हो, लेकिन जीवन पर कितना भारी है, यह एक अशिक्षित व्यक्ति तक भली-भांति जानता है। विडंबना है कि जानते-समझते भी हम इस धीमे जहर को निरंतर ग्रहण कर रहे हैं और बेहद प्रसन्न होकर।

ऐसा नहीं कि सरकार प्लास्टिक के प्रयोग को सीमित करने के प्रयास नहीं करती। विकल्प के तौर पर कागज, कपड़ा और जूट से बने थैले भी बाजार में उतारे गए, लेकिन ऐसे प्रयास निरंतर विफल ही रहे। हमारे सामाजिक जीवन में प्लास्टिक की पकड़ इतनी मजबूत हो चुकी है कि इसको किसी धातु से प्रतिस्थापित करना बेहद कठिन है। त्योहारों पर हम जिसे कूड़ा-करकट समझ कर घर से बाहर करते हैं उसके पुनर्चक्रित होकर दुबारा हमारी रसोई की शोभा बनते देर नहीं लगती। अपना रंग-रूप बदल कर जीवन से खिलवाड़ के लिए रक्तबीज राक्षस सरीखा उपस्थित हो उठता। सब जानते हैं कि प्लास्टिक कैंसर का कारक है। बावजूद इसके हम इसका उपयोग बंद नहीं कर पाते। हम जानकार भले हों, लेकिन जागरूक कतई नहीं हैं।

लंबे-चौड़े भाषणों में हम ‘हेल्थ इज वेल्थ’ का जीवन मंत्र देते रहते हैं, लेकिन जीवन में उसे लागू नहीं करते। सच पूछो तो इसके पीछे हमारी मत्त्वाकांक्षाएं हैं, जिन पर यह प्लास्टिक खरा उतरता है। इसके बाहरी सौंदर्य पर मोहित होकर हम अपने जीवन को दांव पर लगा रहे हैं। यह न केवल भोजन के जरिए हमारे अंदर पहुंच रहा है, बल्कि पर्यावरण में भी अपना जहर घोल रहा है।

खबरें आम हैं कि हर साल आवारा पशुओं के पेट से भारी मात्रा में प्लास्टिक थैलियां निकलती हैं, जो इन पशुओं के मरने का कारण बनती हैं। ऐसी खबरों से एक बार संवेदित जरूर होते हैं, लेकिन दो दिन बाद ही हमारी संवेदनाएं फिर सो जाती हैं। आज जरूरत है कि बाह्य सौंदर्य को त्याग कर आंतरिक स्वास्थ्य को महत्त्व दें। इसमें सरकार द्वारा बनाए नियमों तो ताक पर न रखें, बल्कि एक जागरूक नागरिक के रूप में अमल करे। अगर सरकार एक कदम चले तो हमें दो कदम चलना होगा। यह डगर मुश्किल जरूर है, लेकिन असंभव नहीं।