हम अपने आसपास की ऐसी दुनिया में रहते हैं, जिसमें जो जैसा चलता रहता है, उस पर सोचने की जरूरत महसूस नहीं होती। कहीं सबसे जरूरी चीजों के अभाव से जूझते और मरते लोग तो कहीं उसी चीज के जरूरत से बहुत ज्यादा होने के बावजूद बेफिक्र और सहज लोग। कई बार ऐसे तथ्य बेचैन कर देते हैं कि विकास के दावों के शोर के बीच ही किसी ने भूख से दम तोड़ दिया। देश और दुनिया के लिए एक शर्म रच कर गुजर गए उस व्यक्ति के बरक्स ही यह हकीकत है कि उस अभाव से आजाद हम लोग अपने आसपास न जाने खाने-पीने के कितने सामान बर्बाद होते रोज देखते हैं। यह हमारे पेट भरने के बाद का बचा हुआ हिस्सा होता है, जो हमारी नजरों में फेंक दिए जाने लायक होता है। किसी सभ्य और सचमुच विकास करते समाज में यह हिस्सा पहले संभाल लिया जाता और वहां पहुंचा दिया जाता, जहां इसकी बेहद जरूरत होती है। लेकिन हम सब ऐसे सोचने पर मजबूर कर दिए गए हैं कि इस हिस्से की बर्बादी के बारे में हमारे दिमाग में शायद ही कभी कुछ आता है। संसाधनों की जरूरत से ज्यादा उपलब्धता ने क्या हमारी संवेदना को छीन कर हमें इंसानियत के दायरे से भी बाहर कर दिया है?

‘महाभारत’ में एक कथा-प्रसंग है। दुर्वासा ऋषि अपने शिष्यों के साथ अज्ञातवास काट रहे पांडवों की कुटिया में आते हैं। पांडव भोजन कर चुके हैं। बर्तन खाली हैं। दुर्वासा के ‘कोप’ से बचने के लिए द्रौपदी कृष्ण को याद करती है। कृष्ण खाली पतीली में चावल का एक दाना देखते हैं और उठा कर मुंह में रख लेते हैं। कृष्ण ‘लीला’ और ‘एक दाना’ मिल कर चमत्कार करता है और ऋषियों का पेट बिन खाए ही भर जाता है। यह कथा है, लेकिन अनाज के एक दाने की कीमत बताने के लिए काफी है। ‘दाने-दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम’, ‘घर में नहीं दाने, अम्मा चली भुनाने’, ‘दाने-दाने को तरसना’ जैसी लोकोक्ति और मुहावरे लोक में दाने के ‘मोल’ को बयान करने के लिए काफी हैं। ज्यादातर त्योहारों और समारोह आदि में अनाज का पूजन भी उसके बेहद महत्त्व को दर्शाता है। जापान में होंडा और टोयोटा ब्रांड के नाम तक ‘धान’ जैसे अनाज से प्रेरित हैं। कितना कुछ है जो जीवन में अनाज के महत्त्व को रेखांकित करता है।

मगर इस सिक्के का एक दूसरा पक्ष भी है, जिसकी सूरत बेहद भयावह है। सवा अरब से ज्यादा लोगों की आबादी वाले अकेले भारत में ही हर साल लाखों लोग भूख और कुपोषण की वजह से मर जाते हैं। मरने वालों में महिलाओं और बच्चों की संख्या ज्यादा है। एक ओर मुट्ठी भर अनाज के लिए ‘पेट-पीठ मिल कर दोनों एक’ हो जाते हैं तो दूसरी ओर शादी सरीखे सामाजिक उत्सवों में प्लेट भर-भर कूड़ेदान के हवाले किया जाता है। एक तरफ ‘शाही-भोग’ है तो दूसरी ओर तुलसीदास की पंक्ति- ‘खेती न किसान को, भिखारी को न भीख भली, बनिक को बनिज, न चाकर को चाकरी’ आज भी प्रासंगिक लगती है।

किसी सिक्के को आमतौर पर दो पहलुओं से देखा जाता है। लेकिन इसका तीसरा पक्ष भी है, जिसके चलते सालाना लगभग अस्सी हजार क्विंटल अनाज सड़ कर बर्बाद हो जाता है। अभी तक कोई सरकार अनाज के भंडारण की उचित व्यवस्था और रखरखाव में पूरी तरह सफल नहीं हो पाई है। बल्कि मुझे कई बार लगता है कि सरकारों की नीयत में ही खोट है, वरना क्या वजह है कि एक ओर लोग भूख से जूझते और मरते रहें और दूसरी ओर गोदामों में रखरखाव की वजह से अनाज सड़ कर बर्बाद हो जाए! अति-वृष्टि एक प्राकृतिक आपदा है, लेकिन इसके नाम पर व्यवस्थागत लापरवाही के आरोपों से तंत्र के लिए बच निकलना मुश्किल भी नहीं है। किसी लावारिश लाश की तरह पड़ा सड़ता अनाज भूमंडलीकृत और विकास की पगडंडियों पर चढ़ते हुए हमें मुंह चिढ़ाता है, जिसे हम अनदेखा कर हौले से आगे निकल जाते हैं।

सरकारों के आने-जाने का इस पर भी कोई असर नहीं होता। वहीं का वहीं पड़ा रहता है जमींदोज होने के लिए। यहां इसे गरीबों को मुफ्त बांटना सरकारी घाटे को न्योता देना है। जो अन्न बर्बाद हो जाता है, उससे शायद कोई घाटा नहीं होता है! हम मंगल पर बस्ती बसाने का ख्वाब देख रहे हैं, लेकिन जो बस्तियां धरती पर नारकीय जीवन जीने को मजबूर हैं, क्या उनके प्रति समाज और सरकार की कोई जवाबदेही नहीं बनती? क्या लोक की प्राथमिक और बुनियादी जरूरतों को पूरा किए बगैर ‘विकास की सीढ़ी’ बेमानी नहीं? आज हर दाने की कीमत पहचानने की जरूरत है। न केवल सरकार को अनाज भंडारण की दिशा में उचित कदम उठाने की जरूरत है, बल्कि समाज के उस ‘तबके’ को अपने दृष्टिकोण में बदलाव की जरूरत है जो खाने की बर्बादी को ‘स्टेटस-सिंबल’ समझता है।